Monday 19 December 2011

सन्मार्ग १८ दिसंबर २०११ में प्रकाशित कवि डॉ . अभिज्ञात द्वारा लिखित मेरे कविता संग्रह ' आकाश की हद तक ' की समीक्षा

आकाश की हद को पार करती कविताएँ

'आकाश की हद तक 'नीलम सिंह  का पहला काव्य संग्रह है | हालाँकि वे बचपन से लिखती रही हैं और इस अवधि में विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं जिसके कारण काव्य जगत उनकी रचनाशीलता  से परिचित है |इस संग्रह से गुजरने के बाद पाठक के मन में उनकी रचनाशीलता के प्रति यह आश्वस्ति बोध होता है कि वे न सिर्फ एक संवेदनशील कवयित्री हैं बल्कि कविताओं में धार और बदलाव की अदम्य आकांक्षा है जो उनके रचे को व्यापक जनसमुदाय से जोड़ता है | उनकी कविताओं में घर - बाहर के बीच लगातार आवाजाही बनी रहती है और बाहर की दुनिया के लोगों की दुःख - तकलीफ उनकी अपनी व्यथा  - कथा से कतई अलग नहीं रहती | माँ के प्यार की नमी इस संग्रह की कई कविताओं में है और उनकी  कविताओं की दुनिया की कल्पना माँ की चर्चा के बिना लगभग असंभव लगती है | माँ की लोरियों की अनुगूँज अगर किसी कवि में लगातार बनी रहे तो उसका रचना-संसार अपने आप आत्मीय हो उठेगा , यह कहने में कोई हिचक नहीं | माँ को लेकर शायर मुनव्वर राना ने बेहतरीन शेर कहे हैं और उनकी जो व्यापक पहचान बनी है उसमें माँ से जुड़े मुद्दों का योगदान बहुत है | नीलम  सिंह की कविताएँ पढ़कर उनकी याद बरबस हो आती है | नीलम स्त्रियों के वजूद को पुरुषों से कमतर आँके जाने को स्वीकार नहीं करतीं और व्यापक अर्थों में स्त्री के अस्तित्व , उसकी शक्ति ,उसके आत्मसम्मान की पुरअसर अभिव्यक्तियाँ उनकी कई कविताओं में पूरी साहसिकता और शिद्दत से उपस्थित हैं | यह ऊर्जा का अक्षय श्रोत उन्हें ' माँ की विरासत ' के तौर पर मिला है | ' माँ की विरासत ' कविता में वे कहती हैं - 'एक शब्द कोष था / जिसमें बेटे - बेटी का अर्थ एक था / एक धरती थी मेरे पैरों के लिए / एक आकाश था मेरी मुट्ठियों के लिए / गहनों की पिटारी में रखे थे /अस्मिता और आत्मविश्वास जैसे शब्द / तुमने कुछ गुनगुनाया मेरे लिए / वह कविता आज भी खड़ी है मेरे साथ | ' उनकी कविताओं में माँ की ही बातें नहीं हैं बेटियों की भी बातें हैं , जिनकी मुश्किलों और हौसलों के साथ वे निरंतर बनी हुई हैं | उनके लिए कविता केवल  कोमल भावों को  व्यक्त करने  वाली विधा नहीं  है बल्कि उन्हीं के शब्दों में - ' मजबूत हाथ है कविता / जीती  जा सकती  है जिससे / बड़ी से बड़ी जंग ......समुद्र का विस्तार है / जो गुंजित कर सकती है पूरे ब्रह्माण्ड  को /वह  झंकार है  कविता | ' उनकी कविता में पीछे छूट गए गाँव की स्मृतियाँ और उसकी खुशबू है जो अपना  सम्मोहन पैदा करने में कामयाब है साथ ही  वैश्विक स्तर पर गरीब मुल्कों को और गरीब करने की साजिशों की खोज खबर भी है जो उनके रचनात्मक कैनवास के व्यापक होने का परिचायक है | 

Monday 7 November 2011

तेज लहरों पर लिखी मेरी इबारत

तेज लहरों पर लिखी मेरी गज़ल
अब नहीं तुमसे मिटाई जाएगी
रेत मेरी ज़िन्दगी की ऐ हवा !
अब नहीं तुमसे उड़ाई जाएगी |
गीत हैं मेरे नहीं कोई शग़ल
चोट अंगारों की है मेरी गज़ल
हर किसी से ये ना  गाई जाएगी |
हैं छुपी इसमें कई परछाइयाँ
और कुछ मासूम सी तन्हाइयाँ
जो नहीं तुमसे रुलाई जाएँगी |
दीप बनकर दर्द जब जल जाएगा
ये अँधेरा सर्द सा ढल जाएगा
रोशनी ना ये छुपाई जाएगी |
हम समंदर में पले हैं इस तरह
और थपेड़े भी सहे हैं बेतरह 
ये निशानी ना दिखाई जाएगी | 




Friday 4 November 2011

चेहरे

कैसे पहचाना जाए
कि जिस पर जमी हैं  अनगिनत परतें
उन चेहरों में असली कौन है ?
इन दिनों सभी के पास
पूर्ण प्रशिक्षित चेहरों की भरमार है
जो तुरंत पहचान लेते हैं 
देखनेवालों की आँखों का रंग 
और उसी में रंग जाते हैं |
ये खींच ले जाते हैं 
एक ऐसी दुनिया में 
जहाँ फरेब का जादू डाल देता है 
धीरे से सम्मोहन का जाल  
और शुरू हो जाता है
जादूगरी का खेल
फिर तो लोग वही देखते हैं 
जो चेहरे दिखाते हैं  
मायावी चेहरों की माया से
हम रोज चोट खाते हैं
पर कमाल की बात यह है
 कि सभी को बेपरत चेहरों से
परतों वाले चेहरे ज्यादा लुभाते हैं |

Sunday 30 October 2011

स्मृतियों के वातायन से

ये १९८९ की बात है , गुरुवर राधेश्याम त्रिपाठी जी से मिलकर मैं  उनके गाँव प्रभुपुर से  बाबूजी के साथ  लौट रही थी | रास्ते में तूफ़ानी हवाएँ चलने लगीं उनका प्रवाह इतना तेज था कि कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे थे | मैंने बाबूजी का हाथ कसकर पकड़ रखा था , डर भी लग रहा था क्योंकि अँधेरा गहरा रहा था तभी बाबूजी ने कहा - " देखो बेटा हम प्रकृति के कितने करीब हैं " मैं सच में प्रकृति के साहचर्य को महसूस करने लगी ,भय कम होने लगा , पता ही नहीं चला कब हमारा अपना गाँव आ गया | आज भी जब कभी ज़िन्दगी में कोई तूफ़ान उठ खड़ा होता है  , उथल - पुथल मच जाती है तो लगता है बाबूजी कह रहे हैं " देखो बेटा हम ज़िन्दगी के कितने करीब हैं " और सच में उन विषम परिस्थितियों में भी मुझे  ज़िन्दगी की धड़कन सुनाई देने लगती है | जीवन के न जाने कितने मोड़ों पर उन्होंने मुझे भटकने से बचाया |  भवानीपुर एडुकेशन सोसाईटी कॉलेज में जब मैं साक्षात्कार देकर आई और मेरा चयन भी हो गया तो वहाँ पहले से पढ़ा रही मेरी सहकर्मियों ने मुझे बहुत डराया | उनमें एक मेरी कॉलेज की प्राध्यापिका भी थीं | उन्होंने कहा - जानती हो , यहाँ स्टुडेंट इतने बदतमीज़ हैं कि उपस्थिति लेते समय कुत्ते बिल्लियों की आवाजें निकालते हैं  , अनर्गल प्रश्न पूछते हैं | मुझे बड़ा अजीब लगा , घर आकर कहा मुझे ऐसे कॉलेज में नहीं पढ़ाना | बाबूजी हँसने लगे पास बुलाकर बैठाया फिर पूछा - क्यों ? क्या तुमको अपने पर विश्वास नहीं ? क्या तुम्हारे पास अपना व्यक्तित्व नहीं ? या  अपने विषय पर अधिकार नहीं ? कमजोर और डरपोक हो ? मैं चुप ! कहा ऐसी कोई बात नहीं | उन्होंने कहा मेरी बेटी होकर डरती हो ?  जाकर क्लास लो कुछ नहीं होगा | दूसरे दिन जब कॉलेज गई तो बी . ए. आनर्स वालों के साथ पहला पीरियड था | देखा मेरे कई विद्यार्थी मुझसे भी बड़े हैं , विचित्र स्थिति थी , मैंने बाबूजी की बातें याद कीं और मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई | बाद में कुछ दूसरे कारणों से मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया | मेरे जीवन के संघर्षमय पलों में वे मेरे लिए रात - रात भर जागे , मैं पढ़ती तो वो मेरे लिए नोट्स तैयार करते | मेरे दादाजी लड़कियों की पढ़ाई के ख़िलाफ थे | जब मैंने हाईस्कूल की परीक्षा पाँच में से तीन विषयों में विशेष योग्यता के साथ पास किया तो सोचा दादाजी पिघल जायेंगे पर वो अड़ गए | मेरा दाखिला नहीं करवाया , माँ की उनके सामने कुछ चलती नहीं थी और बाबूजी कलकत्ता थे | मैं उन्हें हर दूसरे दिन चिट्ठी लिख -  लिखकर भेजती वो  आकर सब ठीककर देनेका आश्वासन देते |आखिरकार मेरे प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त हुईं
बाबूजी दशहरे के अवसर पर गाँव आये तो मेरा रोना - धोना शुरू हुआ कि मुझे हर हाल में पढ़ना है | वे उसी दिन धरांव इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य  चंद्रदेव चौबे जी से मिले और उनसे दाखिले  के लिए अनुरोध किया पर उन्होंने कहा की काफी देर हो चुकी है रजिस्ट्रेशन भी हो गया है अब कुछ नहीं हो सकता | बाबूजी ने   कहा  कोई  रास्ता   बताइए  यह   किसी  बच्ची  की  ज़िन्दगी  का  सवाल  है |      चौबेजी   ने कहा ठीक है आप इलाहाबाद बोर्ड से अनुमति ले आइये मैं दाखिला कर लूँगा | बाबूजी ने दौड़ भाग करके बोर्ड से अनुमति प्राप्त कर ली | ग्यारहवीं कक्षा में मेरा दाखिला हो गया , मेरे कक्षाध्यापक थे पंडित राधेश्याम त्रिपाठी जी | सब कुछ ठीक हुआ तो दादा जी ने दूसरी मुसीबत खड़ी कर दी कि मैं इसे विद्यालय नहीं जाने दूँगा क्योंकि वो कोएड स्कूल है | बाबूजी को समझ में नहीं आ रहा था क्या करें , वो मेरे लिए नौकरी छोड़कर घर बैठ नहीं सकते थे और उनके न रहने पर किसकी हिम्मत थी जो मुझे स्कूल भेजता | थक हार कर वो मेरे गुरूजी पंडित राधेशयाम त्रिपाठी जी की शरण में गए और उन्हें सारी कहानी बताई | वो दादाजी को बखूबी जानते थे | उन्होंने हर संभव सहायता का आश्वासन दिया | दादाजी और बाबूजी में समझौता यह हुआ कि मैं पढ़ाई घर पर ही करुँगी और विद्यालय सिर्फ परीक्षा देने जाऊँगी |  मजबूरन मुझे भी उनका यह  निर्णय स्वीकार करना पड़ा , मरता क्या न करता | उस समय बाबूजी ने मेरे लिए जो संघर्ष किया वह आजीवन याद रहेगा | नीलकमल की परीक्षा जल्दी हो जाती थी  वो कलकत्ता  में पढता था  | तब बाबूजी उसे गाँव भेज देते थे और वही मुझे परीक्षा दिलाने  कॉलेज साथ लेकर जाता था | कोई अध्यापक नहीं , कोई मार्गदर्शन  करने वाला नहीं , मैं अपनी सहेलियों से नोट्स माँगकर पढ़ती , रात -रात भर उसे लिखती क्योंकि दूसरे दिन उन्हें लौटाना होता था | संघर्ष करते हुए  बारहवीं की परीक्षा पास की | बाबूजी समझ गए कि अब गाँव पर मेरा रहना नहीं हो पायेगा क्योंकि दादा जी पढने देंगे नहीं और मैं पढ़े बिना जी नहीं पाऊँगी | दादा जी से लड़ - भिड़ कर वो मुझे कलकत्ता ले आये जहाँ से मेरे जीवन के दूसरे अनुच्छेद का आरम्भ हुआ |

                                                                      

Friday 28 October 2011

गज़ल

यूँ सच ने कर दिए हैं कुछ सवाल दोस्तों
घर झूठ के है मच गया बवाल दोस्तों !
गठरी फरेब की है इतनी उन्होंने बाँधी
अंधों के साथ हम भी कहते हैं उनको गाँधी
इतिहास को बदलना फितरत थी जिनकी यारों
वे हो गए हैं बेतरह बेहाल दोस्तों !
गूँगों की जीभ  पर भी अब शब्द मचलते हैं
नंगे भी सुबह शाम रोज वस्त्र बदलते हैं
चारो  तरफ उगे थे जंगल जो अंधेरों के
कटने पे  उनको हो रहा मलाल दोस्तों !
उतरे हैं कुछ मुखौटे चेहरे से खुदाओं के
कोई न रीझता है अब उनकी अदाओं से
मछली नहीं है कोई , खाली है समंदर भी
बैठे लाचार लेके अपना जाल दोस्तों !
घर झूठ के है मच गया बवाल दोस्तों !

तुम्हारे नाम

मैंने समूची धरती 
कर दी है तुम्हारे नाम 
नहीं खींच सकता कोई भी 
तुम्हारे पैरों तले की जमीन |
आकाश कर दिया है
तुम्हारी आँखों के नाम
तुम्हारे स्वप्न उन्मुक्त विचर सकें |
हिमालय किया है
तुम्हारे कंधों के नाम
वहन कर सको हर भार !
कंटकित गुलाब है
तुम्हारे होठों के नाम
दर्द में भी मुस्कुरा सको |
नक्षत्रों से भरा नभ मंडल
सौंपा है तुम्हें
 कि लड़ सको अँधेरे से |
सारी नदियाँ , सारे समुद्र
तुम्हारे हिस्से हैं  
जीवन नहीं बनेगा मरुभूमि |
सुनो !
मैंने बाँध दिया है तुम्हारे सीने पर
अपने आशीष का कवच ,
नहीं छू पायेगा  तुम्हें कोई आघात |


Wednesday 19 October 2011

आकाश की हद तक { कविता संग्रह } नीलम सिंह

वागर्थ अक्टूबर २०११ में प्रकाशित नीलम सिंह के कविता संग्रह   "आकाश की हद  तक " की समीक्षा [ राधे श्याम त्रिपाठी ]

 "आकाश की हद छूने की कोशिश "

'आकाश की हद तक ' पढ़कर लगा आज का रचनाकार प्राचीन - अर्वाचीन के मध्य द्वन्द्वों से जूझता अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर रहा है | संग्रह की कविताओं में भरपूर रस की पुष्टि हुई है| छंद तो अपने आप बोल रहे हैं | अलंकार की बात ही निराली है , रूपक ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है | नए उपमान गढ़े गए हैं परन्तु पुराने से पीछा भी नहीं छुड़ाया गया है | वही द्रोण , धृतराष्ट्र , दुर्योधन , राम , कृष्ण , हनुमान , बुद्ध , गाँधी , राम अपनी - अपनी विशेष भूमिका में  दिखाई दे रहे हैं |
                                                                  इस रचना संग्रह में हमें समस्याओं  के प्रति छटपटाहट की गंध ही नहीं अपितु विद्रोही स्वर की भी अनुगूँज सुनाई दे रही है | नीलम ने जो देखा , जैसा देखा उस पर कलम बड़ी बेबाकी से चल पड़ी है | संसद से सड़क तक दृष्टि गई है राजनीति तो दुर्योधनों की दासी बनकर रह गई है | समाज कदाचार का कारखाना बन चुका है | धर्म प्रदूषित हो चुका है | पर्यावरण और जीवन से खिलवाड़ हो रहा है | भला ऐसी सामाजिक संरचना में कोई भी कलम का सिपाही क्या उगलेगा केवल शोले ही तो ?
                                                                  नीलम की रचनाओं में जहाँ एक ओर दीन - दलितों को उठाने की चीख - पुकार सुनाई दे रही है , वहीँ दूसरी ओर उसका सशक्त व्यक्तित्व भविष्य के प्रति आस्थावान एवं आशावान दिखाई दे रहा है | जहाँ नीलम ने मरे हुए समाज का अच्छा पोस्टमार्टम किया है वहीं उसकी धमनियों में नए रक्त संचार की क्षमता भी पैदा की है कल्पना के सहारे धरती - आकाश की दूरी  को ह्रदय के  ' टेप ' से नापकर ससीम कर दिया है | यही है वह धारा जिसमें कविता मुखरित होती है | यही है वह भाव - प्रवणता जो किसी कवि - लेखक को शोषितों का मसीहा घोषित कर देती है | नीलम की कविता में बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग ' स्व ' को जिस प्रकार उजागर करता है वह अनागत के लिए इतिहास बन सकता है | इस संग्रह की कविताओं में आज के समाज का समग्र चित्र सिने - रील की तरह घूमता दृष्टिगोचर होता है |
                                                                     रचना धर्मी अपनी परिस्थिति , परिवेश और वातावरण से चोट खाकर वियोगी के आँसू की तरह अपनी कविता को बहा देता है ताकि लोग पढ़ें , समझें और अनुभव करें | भले - बुरे का विवेक तो मनुष्य में होता ही है भले ही वह उसपर पर्दा डाल दे | परिवार का स्वरुप ' छः लोगों का घर ' बड़ा ही प्रेरक है , जीवन की सच्चाई से जुड़ा है | ' बेटियाँ ' , ' बच्चे ' , ' घर ' इत्यादि में सत्य के दर्शन होते हैं | भ्रूण - हत्या पर आक्रोश स्वाभाविक है - " माँ ! भ्रूण - हत्या तो बेटों की होनी चाहिए फिर बेटियों को यह सजा क्यों दिलवाती हो ? " यह बड़ी मार्मिक , कारुणिक एवं जानदार पंक्ति है , रुग्ण मानसिकता पर कुठाराघात  है |
                                                                    रचना जब अपने मूल परिवेश से निकलती है तो मन को छू जाती है क्योंकि अपनी माटी की सोंधी गंध का स्वाद ही कुछ अलग सा होता है | " सावन सूखे खेतों में नहीं संसद में बरसता है " , " किसने रेहन रख दिया मेरा खूबसूरत सा गाँव ? " , " पुरवा ! जब मेरे देश जाना मेरी चन्दन माटी की गंध अपनी साँसों में भर लेना   "  ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाली पंक्तियाँ हैं कि आज कार्पोरेट जगत से जुड़े लोग शायद ही इसकी अर्थवत्ता का मूल्यांकन कर सकें | " पर यही गाँठ जब पड़ जाती है  कोमल रिश्तों के बीच तो दर्द का सबब बन जाती है , ज़िन्दगी बेअदब बन जाती है " इसमें गाँठ की अनूठी व्याख्या है | यह सामाजिक सन्दर्भों की चुभन को दर्शाती है |
                                                                      " सुनो मनु !  तुम उसका इतिहास क्या रचोगे जिसने खुद तुम्हें रचा है ? " आज मनु महाराज होते तो अपने ऊपर यह टिप्पड़ी   देखकर अवाक रह जाते | उनका दंभ चूर - चूर हो जाता , लज्जा से मुख विवर्ण हो जाता | " माँ के लिए " संवेदनात्मक लय की अनुगूँज है , तुकांत और गेय कविता है | " तुलसी को अप्रासंगिक लगती है रामायण , क्योंकि राम और हनुमान ने बना लीं हैं अलग पार्टियाँ " करारा व्यंग्य है | सचमुच खेत खलिहान से निकलकर कविता कैसे " आकाश की हद तक " जाती है यह संग्रह इसका गवाह है | इसमें ऊर्ध्वगामी जिजीविषा की झलक मिलती है |

Tuesday 18 October 2011

इस बार ...

इस बार
सर्दी की छुट्टियों में
ठण्ड से काँपती गंगा की लहरों को
उढ़ाऊँगी स्नेह का दुशाला
घाटों से पूछूँगी हाल - चाल
मंदिर की घंटियों में सुनूँगी
संस्कृति की झंकार
चंदनी माटी को चूमूँगी
गले मिलूँगी आम के पेड़ से
तालाब में पत्थर फेंककर
जगाऊँगी सोई मछलियों को
कोहरे की चादर में लिपटे
खेत - खलिहानों से करूँगी भेंट अंकवार
मिटटी के चूल्हे से फूटती 
पकते अनाज की खुशबू से 
भरूँगी मन - प्राण 
आँगन में खिले गुलाब को 
चौंका दूँगी चुटकियाँ बजाकर 
इस बार 
माँ की गोद से माँग लूँगी
आँख भर नींद , पलक भर सपना 
थोड़ी मनुहार , थोडा दुलार 
अंतस के सागर से एक बूँद प्यार !

Friday 2 September 2011

मैं भी जीना चाहती हूँ.

ये धारदार औजार
काट रहे हैं मुझे
अलग हो रहा है
मेरे जिस्म का एक - एक टुकड़ा
बहुत दर्द हो रहा है माँ !
ये किस गुनाह  की सजा 
दे रही हो  मुझे इसतरह ?
अगर बेटी होना अपराध है
तो क्यों नहीं तुमने
यह सजा खुद को दी?
मेरे अंकुरित होने पर
तुम तो बड़ी खुश थी
एक मशीन तुम्हारे गर्भ पर घूमी
और मैं पल भर में अवांक्षित बन गयी
छटपटा रही हूँ मैं पीड़ा से
दम घुट रहा है मेरा
खो रही हूँ अपना अस्तित्व
माँ होकर कैसा उपहार
दे रही हो मुझे
छीन रही हो मुझसे मेरा जीवन
मैं भी देखना चाहती हूँ
ज़िन्दगी के रंग 
सुनना चाहती  हूँ ज़िन्दगी की धुन
पलना चाहती हूँ
तुम्हारे आँचल की छाया में
खेलना चाहती हूँ तुम्हारी गोद में
भैया की तरह
क्यों नहीं पहुँच रही है
तुम तक मेरी आवाज ?
मैं भी जीना चाहती हूँ
क्या जीने का हक ,  मुझे दोगी माँ ?

Monday 29 August 2011

उठे हुए हाथ



जब भी उठते हैं हाथ
मुट्ठियाँ बाँधे लहराते हैं
इतिहास बदलता है
राज पथ सिकुड़ने लगता है
छोटे रास्ते चौड़े हो जाते हैं
अनगिनत अँधेरी रातों के बाद
फूटती है प्राची से
एक अरुणाभा
आकाश में गूँजती स्वर लहरियाँ
सुनती है संसद
सफेदपोशों का काला चेहरा
सामने आता है
जनतंत्र के पुनर्जन्म पर
मुस्कुराता है देश
उठे हुए हाथों  में
बड़ी ताकत होती है 
ये छीन लेते हैं
स्वर्ग में बैठे देवताओं का ताज
उठा लेते हैं उनकी थाली से
अपने हक़ की रोटियाँ
निकाल लेते हैं
पानी होते खून से
अपना लोहा |

Wednesday 3 August 2011

पैसों का पुल

हर यात्रा शुरू होती है
इससे गुज़रने के बाद ही
चाहे वह पेट से रोटी तक की यात्रा हो
या आँखों से सपनों की
प्यास से पानी की
पलकों से नींद की
दर्द से सुकून की
कलम से शब्द की
मन से भावना की
देह से पसीने की
फूल से खुशबू की
बीज से अंकुर की
जीवन से मृत्यु की |
पैसों का पुल
पहुँचा देता है उन रास्तों पर भी
जिनका कोई छोर नहीं होता
परन्तु मृत्यु से जीवन की यात्रा में
काम नहीं आता
पड़ा रहता है परित्यक्त
पैसों का पुल |

Sunday 31 July 2011

मैं सांप्रदायिक हूँ वे सेक्युलर

मैंने अभी - अभी
गुरूद्वारे में
गुरुग्रंथ साहिब का पाठ किया है
अजमेर शरीफ़ में
मेरे ख्वाजा की दरगाह है
सूली पर चढ़े ईसा का रक्त 
मेरा भी दामन भिगोता  है 
बौधों के सुत्त , इंजील के सरमन
कन्फ्यूसियस के सुवचन
मुझे अच्छे लगते हैं
अच्छी लगती है गीता ,
वेद , पुराण ,उपनिषद भी
मुझे गर्व है अपनी संस्कृति पर
और सेक्युलर होने का प्रमाणपत्र
मुझे उनसे नहीं चाहिए
जो माँ , बहनों की अस्मत बेचकर  
बदले में सेक्युलर होने का ख़िताब पाते हैं
लन्दन के लालों को
गीता से साम्प्रदायिकता की ब़ू आती है
रामायण , महाभारत उन्हें कामिक्स लगते हैं
गंगा में नहाने से
ये कम्युनल हो जाते हैं 
गुण यूरोप का गाते हैं 
रोटी भारत की खाते हैं 
आधुनिकता के नाम पर 
लाना चाहते हैं पाशविकता , नग्नता 
विचरना चाहते हैं कहीं भी  
किसी के भी साथ
मिटाना चाहते है स्त्री - पुरुष का भेद
ये तथाकथित सेक्युलर
भारत को गालियाँ देकर
भारत - रत्न पाते हैं
पढ़ते हैं भारत में
डिग्री ऑक्सफोर्ड से लाते हैं
काली कलम से कुत्सित क़ानून बनाते हैं
इन बुद्धिजीवियों की बुद्धि तो देखिये
ये कुत्ते - बिल्लियों को सभ्य और सुसंस्कृत बताते हैं |






Sunday 24 July 2011

पानी

आकाश से बरसकर
धरती से ख़ुशबू बनकर फूटता
चट्टान के सीने को फोड़कर
आवेग में प्रवाहित
नदी - तालाब के वक्ष पर
शिशु की तरह मचलता
किसी की आँखों में
विद्युत् की तरह चमकता
हरीतिमा के बीच
रजत धारा सा बहता
यौवन के उद्दाम आवेग में
समुद्र बनकर गरजता
अल्हड़ प्रेमी की तरह
झरना बन गुनगुनाता
पानी हमेशा सुन्दर लगता है |
किसी पहाड़ के गले में बाहें डाल
उसके कानों में कुछ कहता है
या अपनी नर्म अँगुलियों से
पृथ्वी के खुरदरे होठों को छूकर
नाज़ुक बना देता है
उसकी हथेलियों पर
मेंहदी बनकर उभरता है
तब पानी प्यार की तरह
मधुमय लगता है
पर किसी भूखे बच्चे के कटोरे में
जब दूध की तरह छलकता है
पानी मुझे सबसे सुन्दर लगता है |

Friday 22 July 2011

बारिश

बारिश का आना !
जैसे माँ का लहराता आँचल |
पानी का बरसना !
ममता से भर आई हों जैसे
पिता की आँखें |
बूँदों का आलिंगन !
मिल रहे हों जैसे किसी अपने से
लम्बे अंतराल के बाद |
माटी की महक !
नवजात बच्चे की देह से
फूट रही हो जैसे सुगंध |
पत्तों का मर्मर संगीत !
बज रही हो प्राणों में
जैसे सरस्वती की वीणा |
बादलों का स्पर्श !
छू लिया हो जैसे किसी ने
लाड़ से , दुलार से |
गर्जना के स्वर !
मंदिर से उठ रही हो जैसे
पवित्र शंख ध्वनि |
गीली मिट्टी , गीला मन
घटाएँ जैसे मधुबन |
आसमान !
रोये - रोये से नयन |
बारिश में भींगना !
जीवन को जी भरकर जीना | 

Wednesday 6 July 2011

उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन

सावन आता है ,
बरसती हैं आँखें हर बरस
तुम्हारी आखिरी राखी
जब बाँधती हूँ भाइयों की कलाई पर
स्मृतियाँ  चीर देती हैं सीना
एक दूसरे से नज़रें  चुराते
छुपाते अपने आँखों की नमीं
हम मर - मर कर जीते हैं
माँ की ममता तकिये में मुँह छुपाये
रात भर रोती है ,
बाबूजी का कंधा असमय झुक जाता है 
आँगन की तुलसी सिसकती है 
तीज त्योहारों पर परस देती हैं माँ 
आज भी चार थालियाँ 
त्रिशंकु की तरह हम तीन 
झूलते हैं यातना के आकाश में |
ये कैसी क्रूरता हुई हमारे साथ 
कि दूध  पिलाया जिन हाथों से
उसी से पिलाया तुलसी और गंगा जल !
तुम्हारे जाने के बाद
पूनम की रातें अमावस बन गईं
ओ मेरी चंदा !
जिस दिन तुम्हें खोया
उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन |

Saturday 2 July 2011

अरे यायावर रहेगा याद ! [जलदापारा फ़ॉरेस्ट ]

वन की सुरम्य पगडंडियों से गुजरते हुए अनुभव हो रहा था कि एक पावन सुगंध वातावरण को सुरभित किये हुए है ठीक वैसे ही जैसे यज्ञ - कुण्ड से उठती महक मन -प्राण में रच - बस जाती है | वैदिक ऋचाओं सा गूँज रहा था वन का मधुर  संगीत ! पत्तों , किसलयों ,फलों - फूलों की महक मन को विभोर कर रही थी |
                                          संध्या का साँवला आँचल लहरा रहा था | आकाश का जादू देखने लायक था | नीले , पीले , गुलाबी , लाल , हरे , सुनहले रंगों के सरोवर में आकाश डुबकियाँ लगा रहा था | उस रंगीन सरोवर से नहाकर निकलते बादल सद्यः स्नात शिशुओं की तरह प्रतीत हो रहे थे | पक्षियों का कलरव वातावरण की निस्तब्धता को भंग  कर रहा था | वे अपने बसेरे को लौट  आये थे , शाखाओं पर अपनी जगह बनाने को अस्थिर हो रहे थे |
                              हम   घने वन के बीच प्रकृति के बिलकुल करीब थे , इतने निकट कि उसकी साँसों की अनुगूँज सुनाई पड़ रही थी जैसे माँ के वक्ष से लिपटे होने पर उसकी साँसों का स्पंदन सुनाई देता है | मन स्निग्ध भावनाओं के निर्झर में नहाने लगा ,होठों से फूटने लगे प्रार्थना के अस्फुट स्वर - ' विधाता ! हमें सदबुद्धि दो कि छाया देने वाले प्रकृति के आँचल को हम तार - तार न करें | ' आगे बढ़ते समय कुछ वन्य जीवों के दर्शन का सुयोग भी मिल रहा था | उस दिन हम शायद शुभ मुहूर्त में निकले थे | हरी झाड़ियों के बीच से निकलकर एक सुन्दर हिरण हमारे रास्ते के बिलकुल पास खड़ा हो गया ,हमने गाड़ी रोक दी ,वह शायद जड़ और हतप्रभ था , हिल भी नहीं रहा था | हमें भी उस भीतु प्राणि के इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था | हमने जी भरकर उसकी तस्वीरें लीं ,वह लगभग पाँच मिनट तक वहीँ खड़ा रहा | गाड़ी स्टार्ट करने पर आवाज़ सुनकर भागा | थोड़ी दूर जाने पर जंगली भैंसों का एक झुण्ड मिला | सेनानायक ने हमें रुक जाने की चेतावनी दी | वह विशालकाय था प्रायः हाथी जैसा लम्बा -चौड़ा | रास्ते के बीचों - बीच खड़ा वह अपने साथियों को रास्ता पार करा रहा था और लगातार हम पर नज़रें रखे हुए था | गाड़ी की खिड़कियों के शीशे चढ़ाकर हम दम साधे बैठे हुए थे |रेंजर बता रहा था कि यदि यह आक्रामक हो जाय और हमारी तरफ पलट जाय तो बचना मुश्किल है | जंगली भैंसों के आक्रमण के कई किस्से उसने हमें बताये | जब वह चला गया तब हम आगे बढ़े | साम्भर  हिरण , बारहसिंघा ,जंगली सूअर और तरह -तरह के पशु - पक्षियों का अवलोकन करते जब हम हालाँग नदी के जल सतह पर पड़ती सूर्य की स्वर्ण - रश्मियों का नर्तन देखने लगे तभी दृष्टि समीप के एक वृक्ष पर पड़ी जिसकी शाखाओं पर सैकड़ों मोर -मोरनी बैठे हुए थे | ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था |
                                    तोरसा नदी पार कर हम जिस जगह पहुँचे वहाँ हाथियों का झुण्ड मस्ती में झूम रहा था | कुछ के बच्चे भी उनके साथ थे | वन अधिकारी ओमप्रकाश ने उनके विषय में काफी जानकारियाँ दीं | शाम ढल रही थी और रात आने को थी | वन के सुरक्षा कर्मी पेट्रोलिंग के लिए निकल पड़े थे | मस्त गैंडे अपनी साम्राज्य सीमा में विहार करते नज़र आये | जलदापारा फ़ॉरेस्ट वैसे भी गैंडों के लिए ही  प्रसिद्ध है | चारो तरफ अँधेरा फैला हुआ था | हम तोरसा नदी के किनारे खड़े उसकी लहरों का संगीत सुन रहे थे | वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था | ड्राईवर प्रशांत ने कहा रात होने से पहले हम लौट चलें तो बेहतर होगा | मन मारकर हम वापस लौट पड़े | अँधेरा गहरा रहा था , अचानक प्रशांत ने कहा -' वो देखिये ! ' उसके इशारे पर हमने देखा एक हिरण एक गिरे हुए वृक्ष के तने पर बैठा हुआ था | आगे जाने पर वह जंगली भैंसा भी वापस दिख गया शायद वह टोह ले रहा था कि उसके क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करनेवाले हम घुसपैठिये बाहर निकले कि नहीं |
                                            जंगल के बीच बने वाच टावर पर चढ़कर हमने वन के सौंदर्य को मन -प्राण भर निहारा | आकाश का सौंदर्य बदल चुका था | उसके काले फलक पर बिखरा सिन्दूरी रंग देख लग रहा था हम किसी परीलोक  में विहार कर रहे हैं | ड्राईवर ने खिड़कियों के शीशे ऊपर चढ़ा लेने को कहा क्योंकि खतरा हो सकता था और हम थे कि हाथ बाहर निकालकर तस्वीरें ले रहे थे | जी कर रहा था इस समूचे सौंदर्य को कैमरे में कैद कर लें | सुरेश नाराज हो रहे थे - ' तुम तो आकाश और बादलों को देख पागल हो जाती हो | ' बच्चे भी मना कर रहे थे | बुझे मन से मैंने सबकी भावनाओं का सम्मान करते हुए कैमरा रख दिया पर खिड़की खुली रही | मैं उस हवा को वन - गंध को छोड़ना नहीं चाहती थी | हमने और सोनू ने लगभग सात सौ तस्वीरें उतारी थीं | सब चिढ़ा रहे थे -' ये लोग भावी फोटोग्राफर हैं , इनके फोटो की प्रदर्शनी लगेगी | 'हम मुस्कुराते रहे |
                                                                दूसरे दिन सुबह पर्यटकों के शोर शराबे से नींद खुली तो खिड़की से देखा एक गैंडा रेस्ट हॉउस के बिलकुल करीब आ गया था वह पास के मैदान में रखे हुए नमक को खाने आया था जो वन - विभाग के कर्मचारियों ने रखा था | शहरी लोग उसे देखकर पागल हुए जा रहे थे | सुरेश ने उसकी बीसों तस्वीरें उतारीं और उसके क्रिया कलापों की देर तक रिकार्डिंग की | मैंने चुटकी लेते हुए कहा - ' क्यों जनाब ! मैं तो बादलों की बेटी हूँ पर आप कबसे गैंडा प्रेमी हो गए ? ' वे बोले अरे यार ! क्या मस्त अदाएँ है उसकी , देखो , देखो | हम सब ठहाका मारकर हँस पड़े | इस स्थान को कई बार देख चुकी हूँ ,परन्तु मन नहीं भरता जी चाहता है इसके सौंदर्य को ह्रदय में सदा के लिए बसा लूँ |
गठरी वाली औरतें

उनकी आँखों में
हँसता है भादो का आसमान
और साँसों में धान की दूधिया महक
बरगद के बरोह जैसी बांहों में
ब्रह्माण्ड  उठाये
अपने खुरदुरे पैरों से
धरती को गुदगुदाते
भीड़ भरी रेल में
बैठने की जगह बनाते
हँसते - खिलखिलाते
वे खोलती हैं अपनी गठरियाँ
और रोटियों के साथ
निगल जाती हैं समूचा दर्द
उनके जिस्म के सितार पर
बजती रहती है ज़िन्दगी की धुन 
उनके पसीने से आती है लोहे की गंध 
और शब्दों के धार से चीर देती हैं 
किसी का भी कलेजा 
अपने आँचल में बाँधकर
चटख रंगों वाले सपने 
वे खिल जाया करती हैं 
गर्मियों में गुलमोहर की तरह 
गठरी वाली औरतें महकती हैं 
कभी नागफनी , कभी गुलाब की तरह | 

 

Sunday 26 June 2011

४ फरवरी १९८७ एक बीता हुआ कल

स्मृतियाँ भी कितनी अजीब होती हैं गाहे - बगाहे मन की दहलीज पर दस्तक देती रहती हैं , एक दिन अज्ञेय जी की कविता दूर्वादल पढ़ रही थी की यादें खींचकर अतीत में ले गयीं | अज्ञेय जी के साथ बिताये पल साकार हो उठे | उन्हें देखकर लगा सरोजिनी नायडू ने ठीक ही कहा था  -' कवि जब स्वयं सुरूप न हो  और व्यक्तित्वहीन हो तो वह सुन्दर रचना कैसे कर सकेगा ? ' अज्ञेय जी के विशाल एवं गरिमामय व्यक्तित्व का दर्शन कर हमारी कल्पनाएँ फीकी पड़ने लगीं , एक तेज सा प्रकाशित हो रहा था उनकी आँखों से | उनकी गंभीर मुख -मुद्रा देखकर प्रश्न पूछने का साहस नहीं हो रहा था पर यह अवसर हम खोना भी नहीं चाहते थे | उन्हीं दिनों बच्चन जी की एक टिप्पड़ी  कविता के सन्दर्भ में पढ़ी थी कि -'वर्त्तमान कविता को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई पानी में डूब गया हो और उसे कृत्रिम सांस दिलाने की कोशिश की जा रही हो |' मैंने उसी सन्दर्भ  में  अज्ञेय जी से पूछा - क्या वास्तव में आज की कविता प्रभावशाली नहीं है ? वो मुस्कुराने लगे फिर कहा -मैं ऐसा नहीं मानता हाँ ,ह्रदय -पक्ष की कमी अवश्य है | आज का युग बुधिप्रधान युग है उसकी साहित्यकारों से ये माँग है कि उन्हें ऐसी रचना प्रदान की जाए और आधुनिक कविता लोकप्रिय भी है | जब समाज को ऐसा लगेगा कि उसे ह्रदय -पक्ष को महत्व देने वाली रचनाओं की जरूरत है और वह उसकी माँग करेगा तो साहित्यकार उसे अवश्य प्रदान करेगा | ' मैंने पुनः प्रश्न किया -आपने ' शेखर एक जीवनी ' में ऐसा क्यों लिखा है कि 'साहित्य का निर्माण मानो जीवित मृत्यु का आह्वान है ? साहित्य सृजन में यह पीड़ा क्यों ? क्या आपको ख़ुशी नहीं होती जब लोग आपकी रचनाएँ पढ़ते हैं ,उससे प्रेरित होते हैं  ?अज्ञेय जी की मुख -मुद्रा गंभीर हो गयी ,उन्होंने कहा -'ख़ुशी होती तो है , ऐसा मैंने इसलिए कहा है क्योंकि यह कार्य वास्तव में बहुत कठिन है | हमारे मन में भावनाएं उठती हैं ,हम उन्हें अभिव्यक्त करते हैं पर रचना पूरी होने पर देखते हैं कि अरे ! यह तो वह है ही नहीं जिसे हम लिखना चाहते थे | तब अजीब सी झुंझलाहट होती है , उन्हें अभिव्यक्त कर देने पर एक अजीब सा खालीपन महसूस होता है |'उन्होंने काल -चिंतन विषय पर वक्तृता  भी दी | आज भी उनके शब्द जैसी कानों में गूँजते हैं - 'महत्व जीवन में काल का नहीं ,क्षणों का है | हम अपने जीवन के पूरे समय को याद  नहीं रखते  ,याद तो विशेष क्षणों को ही करते हैं जो कुछ विशेष स्मृति से युक्त होते हैं  | ' कविता में अभिरुचि होने के कारण मैंने उनसे काव्य - लेखन के विषय में भी बहुत कुछ पूछा जैसे शब्द -प्रयोग में या कथ्य को अभिव्यक्त करने में ,या किसी नयी उपमा के चयन में क्या एहतियात बरतना चाहिए | मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर उन्होंने बड़े धैर्य से दिया | उन्हें एक कवि सम्मलेन में जाना था अतः हमें उनसे विदा लेनी पड़ी पर उनके सान्निध्य में कुछ और पल बिताने को दिल कर रहा था | फिर आया ४ मार्च १९८७ का दिन ! सुना , अज्ञेय जी नहीं रहे | विश्वाश न हुआ पर सत्य को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता था | वह विभूति जो कल तक हमारे बीच थी लुप्त हो गयी | लेकिन मन तो आज भी यही कहता है कि भले ही आज वह हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी रचनाएँ उनकी उपस्थिति का अनुभव हर पल कराती रहती हैं | जब भी उनकी कविता की पुस्तक का कोई पन्ना खोलती हूँ  तो उनका चेहरा शब्दों के बीच से झाँकने लगता है , काश वे पल दुबारा लौट आते !

Friday 24 June 2011

धानी चूनर ओढ़े धरती झूम रही होगी , बरखा रानी के घुँघरू बज रहे होंगे ,खिलखिलाकर हँस रही होंगी गीली राहें , झिंगुरों की झनकार कानों में मधुरस घोल रही होगी ,मनचला आकाश अल्हड़ हवाओं से छेड़ -छाड़  कर रहा होगा , अपने बगीचे में गूँज रहा होगा एक मृदु मर्मर संगीत , नटखट बच्चे भींगते हुए पानी में कागज़ की नौकाएं तैरा रहे होंगे ,सबकुछ तो वही होगा , सिर्फ मैं वहाँ नहीं हूँ |

Thursday 9 June 2011

तुम्हें कसम है धरती की ...

संधि ,सभा ,समझौते छोड़ो उठ जाओ
उलझ रहे हो क्यों बेमानी बातों में
बिता दिया सुबहों को तुमने सोने में
ढूँढ रहे सूरज अँधेरी रातों में
चोर -चोर  मौसेरे भाई होते हैं
मरने पर हँसते , जीने पर रोते हैं
इनकी फितरत समझ न पाएंगे हम - तुम
जादू है इनके मायावी  हाथों में |
छल ,प्रवंचना में ,धोखे में मत आओ
दर्द भरा है इन मीठे आघातों में
भ्रष्ट तंत्र के भ्रष्ट दरिन्दे बेच रहे
अपनी माँओं को , माँ जैसी माटी को
कहो बादलों से  गरजें , बरसें , टूटें
करदें बारूदी अपनी हर घाटी को
तुम्हें कसम है धरती की , सोओ मत ,जग जाओ
क्या रखा है किन्नर की बारातों में |

Thursday 28 April 2011

कुछ पल जो कभी नहीं भूलते

          ( १ )

बारिश में भींगने का सुख क्या होता है ये कौन नहीं जानता , हम भी उन बारिश की बूँदों की कोमल छुअन के लिए तरसते | मौका मिलते ही सबकी आँखों में धूल झोंककर  बाहर भाग जाते ,कभी तालाब से सफ़ेद कुइयों के ढेर सारे फूल तोड़ते , कभी पैरों में मिट्टी लपेट कर मिट्टी के जूते पहनते , कभी मछली पकड़ने के लिए कंटिया  लेकर तालाब के किनारे घंटों समाधि लगाते | एक दिन कुछ यूँ हुआ कि  मेरी  वंशी में एक बड़ी मछली फँस गई पास में ही भाई नीलकमल भी थे हमने मिलकर डोर को खींचना शुरू किया मछली ऊपर आई पर यह क्या ? कच्ची डोर टूट गई और मछली फिर से पानी के अंदर ! हमने जी भरके उसे कोसा फिर दोनों ने निर्णय लिया कि हार नहीं मानेगें | दुकान जाकर नई कंटिया और मजबूत धागा खरीदकर पुनः उस अभियान में लग गए | घंटों बाद तमाम प्रार्थनाओं के फलस्वरूप फिर एक मछली कांटे में फँसी इस बार कोई चूक नहीं हुई , हम उछलते -कूदते  उसे लेकर एक विजयी योद्धा की तरह घर लौटे और सबको अपनी गौरव गाथा सुनाई | माँ ने कहा अब बाहर मत निकलना पहले ही काफी भींग चुके हो | वह काम में  लग गयीं और हम फिर चम्पत  ! शाम हो गई थी हमने देखा नीम के पेड़ की जड़ों में एक गौरैया छटपटा रही है | वह बुरी तरह भींग  गई थी , अब उसकी जान बचाने का सवाल उठा , हम उसे बड़ी नजाकत से उठाकर दादाजी की  बैठक में ले गए और दीवार में बनी आलमारी  में रुई बिछाकर उसे रख दिया ,छुपकर खाने के लिए थोड़ा  चावल और पीने का पानी भी जुटा दिया , पहचान के लिए पंखों में लाल रंग लगा दिया | सारी व्यवस्था करके हम घर वापस आ गए |किसी को कानों -कान खबर नहीं हुई | रात भर नींद नहीं आई , हमारी बेचैनी देख माँ बार -बार पूछतीं क्या बात है ? तुमलोग इतने परेशान क्यों हो ? हम खामोश रहे | भोर होते ही धड़कते दिल से वहाँ पहुँचे  | सोच रहे थे पता नहीं बेचारी चिड़िया जिन्दा होगी या नहीं पर दरवाजा खोलते ही वह फुर्र से उड़ गई और सामने  नीम के पेड़ पर बैठ गई | हमारे बाल मन को गहरा आघात पहुँचा | तब हम स्वतंत्रता का अर्थ नहीं जानते थे , हमारे हिसाब से उसे कृतज्ञता पूर्वक हमारे साथ रहना चाहिए था क्योंकि हमने उसकी जान बचाई थी अतः हमने उसकी एहसानफरामोशी पर उसे धिक्कारा और भारी मन से लौट आये | अपनी दुःख भरी गाथा माँ को सुनाई तब वो हँस पड़ीं और आज़ादी की कीमत क्या होती है बताया |

Thursday 21 April 2011

मासूम लड़कियों के भ्रूण एक झील में फेंक दिए गए थे जहाँ से बहते हुए गटर के गंदे पानी में तैर रहे  थे ,इसे  देखने के बाद मेरी आत्मा काँप उठी ,आजतक चैनल पर दिखाए गए इस दृश्य को मैं भुला नहीं पाती , जो माँ संतान की इज्ज़त करना नहीं जानती उसे माँ बनने का कोई हक़ नहीं ऐसा मैं मानती हूँ , प्रगतिशीलता का दावा करने वाला समाज खामोश क्यों है ? क्या हम अपाहिज हैं जो कुछ कर नहीं सकते ? इस तरह की वाहियात हरकतों का मैं पुरजोर विरोध करती हूँ ,और सबके सहयोग की कामना करती हूँ |




बेटियाँ
झील की सतह पर खिला
एक खूबसूरत फूल
कुचलकर , फेंक दिया गया
झील के पानी में
उस फूल से झाँक रहा था
मेरी बेटी का चेहरा
और शायद आपकी बेटी का भी
जो कह रहा था
माँ ! अपने ही रक्त माँस का टुकड़ा
कोई काटकर कैसे फेंक देता है ?
यह सवाल मुझे सोने नहीं देता
मेरी बेटी !
तुम्हारा प्रश्न ,मेरा भी है समाज से
कि आँखों खिला स्वप्निल गुलाब
कैसे फेंक दिया जाता है
किसी गटर या गन्दी नाली में
किसने हक़ दिया है हमें
कि छीन लें हम दूसरों से
उनके जीने का हक़ ?
यकीन मानो गुड़िया
यहाँ हर कोई जी रहा है
सिर्फ अपने लिए
तो तुम्हें भी आना होगा
झीलों , नालियों और गटरों से निकलकर
बंध्या करना होगा उन माँओं की कोख !
जिन्होंने तुम्हें मौत बाँटी है
बिटिया !
जिस समय तुम तोड़ रही होगी
भ्रूण हत्या करने वालों के हाथ
मेरा हाथ भी होगा तुम्हारे साथ |

Monday 18 April 2011

याद
जिस दिन
गाँव की डगर छूटी
पाँव बढ़े शहर की
लम्बी सड़क पर
बार - बार थरथराये
होंठ कुछ कहने को फड़के
ट्रकों के बड़े पहियों के बीच
कुचले जाने की सम्भावना ने
मन को बेचैन किया
कुछ सपने थे
जिन्होंने हाथ थामकर
अजनबी राहों पर चलना सिखाया
धुएँ के गुब्बार के बीच
आँखें धुंधलाई
पर बनी रही सपनों की
चमक -चाँदनी
इन्द्र धनुषों के रंग में
रंगीन बना जीवन
अपने को खोकर
बहुत कुछ पाया
पर आज भी पुरानी राहें
जब पुकारतीं हैं प्यार से
बड़े रास्ते पराये लगने लगते हैं
सपनों की चाँदनी , इन्द्र धनुषों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
भूलने लगते हैं किताबों के नाम
सिर्फ एक छोटी स्लेट
और कुछ दूधिया अक्षर
याद रह जाते हैं |

Tuesday 15 March 2011

नीलम सिंह
जन्म -१३ जुलाई १९६७ ,वाराणसी (उत्तर प्रदेश )

सम्मान - राजीव गाँधी युवा कवि अवार्ड ,आउट स्टैंडिंग यंग पर्सन्स अवार्ड ,मुक्तिबोध स्मृति सम्मान |

प्रकाशन - समकालीन सृजन ,वागर्थ ,अलीक ,अपूर्वा ,काव्यम ,महादरा ,आजकल और अन्य कई पत्र -पत्रिकाएँ |

सम्प्रति -महादेवी बिड़ला गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में अध्यापन |

संपर्क -ऍफ़ /२०३ ,विनायक इन्क्लेव ,५९ काली चरण घोष रोड ,कोलकाता -५०
अन्वित की एक और कविता -

सर्वेसर्वा !  जवाब दें . . .

सर्वेसर्वा ! जवाब दें
स्वर्ण मुकुटधारी हमारा यह देश
बन गया राह में
लोगों के पद आघातों को
सहता पत्थर
ऐसा हुआ क्योंकर ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
देश की सीमा पर
उसकी सुरक्षा -शपथ के नीचे
अपने लहू से हस्ताक्षर करने वाले
सुपुत्र की माँ को
क्यों कर दिया जाता है बेघर ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
अवर्णनीय गरीबी 
और भुखमरी के 
असंख्य थपेड़े झेलते 
देश के दरिद्रनारायण को 
आपके विनाशकारी आघातों से 
संभलने के अवसर तक 
क्यों नहीं मिलते ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
और यह बात भी निराली है
कि यह मंहगाई डायन जिसने
तंगहाल कर रखा है
जनसाधारण की जेब को
आखिर क्यों करें आप
अर्थनीति रुपी अंकुश से उसपे वार
 वह भी तो आप ही की पाली है !
सर्वेसर्वा जवाब दें |
सर्वेसर्वा !
वे प्रतिष्ठित किये जाते हैं
ऊँचे से ऊँचे पदों पर ,
जो कि अयोग्य हैं मगर
आपकी सेवा में नियुक्त हैं
किन्तु योग्य व्यक्ति की चीखें
नहीं सुनता कोई
क्योंकि वे या तो असहाय 
अथवा आपकी सेवा में
न होने के अभियुक्त हैं |
सर्वेसर्वा ! यह क्या हुआ ?
इनमें से एक भी सवाल का उत्तर
आपको नहीं आता है ?
शायद इन प्रश्नों   का जवाब
स्विस बैंक में खुला हुआ
आप का खाता है |



Saturday 12 March 2011

अन्वित की कविता -अन्वित एक ऐसा होनहार बच्चा है जो ढाई साल की उम्र से ही कविता गुनगुनाने लगा | आज हम सूरज को नहीं ढकेंगे ,आज हम सूरज को चमकने देंगे या फिर उसका ये कहना कि एक दिन चाँद की रोशनी सितारों में खो जाएगी ,गंगा की लहरें किनारों में खो जाएगी और मेरी जिन्दगी गंगा की लहरों में खो जाएगी  हमें हतप्रभ कर देता था | कभी -कभी हम डर भी  जाते थे कि इतनी छोटी सी उम्र में ऐसी सोच क्या ठीक है ? खैर कवियों के खानदान का बच्चा कुछ भी कह सकता है| प्रतिभा उम्र कि मोहताज नहीं होती |आशा है भविष्य में वह कविता को कोई नया मुकाम देगा |अन्वित अभी मात्र १४ साल की उम्र का है और   १४ साल की उम्र में ऐसी परिपक्वता देखकर दंग हो जाना स्वाभाविक है | उसकी कविता की एक बानगी प्रस्तुत है  -
 
सब ठीक है
हम कहते हैं सब ठीक है
भुखमरों की भुखमरी
हमारी सम्पन्नता की
सलाखों के पीछे से
दहाड़ मारकर करती है विलाप
पर हम उसे अनसुना करके
कहते हैं कि
सब ठीक है
रोजाना देखने को मिलता है
अपने अधिकार की दो रोटियों के लिए
जूझते हुए शोषित जनसमूह पर
रक्त पिपासुओं के पाले हुए
रक्त बीजों की रक्तिम लाठियों के बरसने का मंजर
और खाने का वक्त होते ही
टी वी बंद कर बड़े संतोष मिश्रित
शब्दों में हम कहते हैं
सब ठीक है |
अब भी हमें भरोसा है
कि सब ठीक है
जबकि हमारे कानों में
गूँज रहा है ड्रैगन की जकड़न
और तारों की चुभन सहती
अपनी माटी का दर्द भरा रुदन
फिर भी इस तथ्य को
कि हम इस माटी के बने हैं
अपने इम्पोर्टेड जूतों तले कुचलकर
तथा कानों में लेटेस्ट टेक्नोलोजी के
इम्पोर्टेड सेलफोन के हेडफोन
की उपस्थिति के कारण
अनसुनी कर ,हम कहते हैं
सब ठीक है |
रोज मक्खियों के झुण्ड की तरह
आती है देश की सर्वाधिक
मेहनतकश कौम 
किसानों की मेहनत का फल
देश की जीवनदायिनी  फसलों के
अगणित परिमाणों के
सड़ जाने की ख़बरें
मगर हम पीजा और बर्गर के
विशाल ग्रासों के साथ कहते हैं
सब ठीक है |
सबकुछ ठीक होने की हमारी
धारणा की इम्तेहाँ तो तब हो जाती है
जब कोई बम विस्फोट नामक
मौत की कवायद में मशगूल
मृत्यु के पग
बिलखते अभागे प्राणों को
रौंदकर निकल जाते हैं
तब हम करुणानिधान के
आगे झुककर
संतोषयुक्त चैन की सांस लेते हुए
कि उन बेचारों में हम शामिल नहीं थे
झूठी सांत्वना में
चंद मोमबत्तियां जलाते हैं
फिर झूठी चिंता जताते हुए
किसी स्वार्थी अथवा निकम्मे
आत्मीय -स्वजन के फ्री के फोन से
आये कॉल का उत्तर देते हुए
हम अपने पुराने
संतोषयुक्त लहजे में कहते हैं
कि अरे!सब ठीक है |

Sunday 6 March 2011

सौदा

वे गिरवी रख रहे हैं
विष्णु का सुदर्शनचक्र
राम का धनुष
हनुमान की गदा
अर्जुन का गांडीव
ब्रह्मा का ब्रह्मास्त्र
देश के शस्त्रागार पर
पहरा होगा अब
सफ़ेद भेडिओं का
बुद्ध की धरती पर
केसरिया की जगह
नीला झंडा लहराएगा
बुद्धं शरणम् गच्छामि की अनुगूंज
नहीं रहेगी हवाओं में
अहिंसा जहाँ जन्मी
वहीँ के लोगों के
अहिंसक होने पर
संदेह है उन्हें |
जिस संस्कृति की छाया में
पूरा विश्व पला
उसे बोन्साई बनाकर
वे करना चाहते हैं देश का विकास
लेह ,लद्दाख और कारगिल की
बर्फीली घाटिओं में तैनात
हमारे भाइयों के हाथों में
वे थमा रहे हैं कागज़ की बंदूकें
हिरोशिमा ,नागासाकी ईरान और ईराक में
विध्वंशक ख़ूनी खेल खेलने वाले
हमें पढ़ाएंगे अहिंसा का पाठ
बुद्ध !राहुल ने ही सौदा किया है
सफ़ेद भेडिओं के साथ
और जिसके मुंह से टपक रही है लार
वो खूंखार भेड़िया मादा है
उसके मन में देश ही नहीं
इतिहास को भी बेचने का इरादा है |

Saturday 5 March 2011

आज पुरवाई कहाँ चली ?
बोझा खोल बाबूजी
सटक रहे धान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
खड़ा पुअरोट है
अकेला खलिहान में
ढेंकी की धुन
गूँज उठी है विहान में
अम्मा के ओखल की
बढ़ गई है शान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
आँगन में तुलसी का
छोटा सा पौधा है
मासूम सपनों का
अपने घरौंदा है
रात भी अंजोरिया में
कर आई स्नान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
बच्चों की यादों में
आँखें बरसती हैं
रास्ता निहारती हैं
पल-पल तरसती हैं
नेह की नियामत का
करती हैं दान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?

सुनो -सुनो !

हालू बाबा ,घालू बाबा !
बच्चे बन गए चालू बाबा
अंजर -बंजर ,ऊसर -धूसर
में भी लहराती है बाली
पूरब -पच्छिम ,उत्तर- दक्खिन
से फूटे सूरज की लाली
चुगलखोर ये चोर अंजोरिया 
हो गई है ईर्ष्यालु बाबा
कौन बने हरजोत्ता अब तो
घुरहू बनने चला कलक्टर
कत्तु, खरपत्तु के खेतों में भी
अब चलता है ट्रैक्टर
बी .डी .सी .बन गया बहेतुआ
बीडीओ  बन गया कालू बाबा |
चमरौटी में चमक -चांदनी
ठकुराने ठन-ठन गोपाला
बुझी -बुझी है बाम्हन टोली
नाचे गाएँ झूमें  ग्वाला
अहिराने में जश्न हो रहा
खाओ खूब कचालू बाबा |

काट रहे वे चिड़ियों के पर 
पार कर गए सात समंदर
खड़ी मड़ैया झंख मारती
बने हुए हैं मोती के घर
डमरू बजे विलायत में अब
दौड़ पड़े सब भालू बाबा
हालू बाबा,घालू बाबा
बच्चे बन गए चालू बाबा |

Friday 4 March 2011

मुखौटे वाले
कितना अजीब लगता है
मुखौटे वालों से मिलना
या उनसे बातें करना
जिनके पास
चेहरे वाले मुखौटे के साथ
भाषाई मुखौटा भी है
उनसे तो डर भी लगता है
कि न जाने कब
ये बदल लेंगे अपना रूप
और हम ठगे रह जायेंगे
हम ,जिसके पास असली चेहरा है
अजनबी बन जातें हैं इनके बीच
शब्दों की चाशनी में डुबाकर
ये नीम को तुलसी बना देते हैं
अपने रेगिस्तानी सीने से
सहानुभूति की गंगा बहा आते हैं
मारीच की तरह स्वर्णमृग बनकर
रच लेते हैं छलना का जाल
मुखौटेवाले
बड़े चालाक होते हैं
ये सूखे पेड़ों पर भी
उगा देते हैं नई छाल |

अचम्भे

कुछ अचम्भे
देखे थे कबीर ने
खड़ा सिंह चरा रहा था गाय
कम्बल बरस रहा था
भींग रहा था पानी
कुछ अचम्भे
देख रहे हैं हम भी
जवाहर का गुलाब
उखाड़ रहा है अपने आस -पास
उगे कांटो को
गाँधी की लाठी से गड़ेरिया
हाँक रहा है भेड़
लक्ष्मी बाई की तलवार
अंग्रेजों के म्यान में है
हिटलर लिख रहा है
जनतंत्र की परिभाषा
किसी गोरे का प्रशस्तिगान
राष्ट्रगीत बनकर गूँज रहा है
हर हिन्दुस्तानी के कंठ पर
बंकिम और इकबाल के गीत
राष्ट्रीय पर्वों पर
पढ़ी जाने वाली स्क्रिप्टें हैं
इटली के हांथों में है
भारत के पतंग की डोर
मर्यादापुरुषोत्तम को
कड़वे लगने लगे हैं
शबरी के बेर
ऐसे करोड़ों अचम्भे
देख रहे हैं हम और आप भी |
ये कैसी लड़ाई है
खेतों में
बीज की जगह
बिखेरा जा रहा है बारूद
जंगल के मर्मर संगीत में
घुल रही हैं गोलियों की आवाजें
आदमी मार रहा है
बेगुनाह आदमी को
जिन्हें नाराजगी है
सत्ताखोरों से
सामंतवादी व्यवस्था से
वे उनसे न लड़कर
खड़े हो गए हैं
उसके खिलाफ
जो पहले से ही
दबाया कुचला हुआ है
ये कैसी लड़ाई है
कि अपने दुस्वप्न को
साकार करने के लिए
दूसरों की आँखों में पलते
मासूम सपनों को
रौंद रहे हैं वो
और हम
संवेदनशीलता का नाटक
करने वाले
भ्रष्ट प्रशासन के कन्धों पर
अपनी बंदूकें रखकर
सो रहे हैं चैन की नींद |

संस्कृति की कलमें
बड़े धूम -धाम से
गाजे -बाजे के साथ
लगाई जा रही हैं
हमारी संस्कृति की कलमें
विदेशों में
अपने भाषा ,साहित्य ,कला का
छीछालेदर करने वाले हम
ताल ठोंक रहे हैं
यहाँ न सही
विदेशों में धूम है
हमारी संस्कृति की
भारतीय महिलाएं
भूल गई हैं
सिन्दूर -बिंदी का महत्त्व
और हम यूरोपीय स्त्रियों को
बिंदी लगाकर
कर रहे हैं अपनी
परंपरा का प्रचार
पूरब के कपड़े उतरवाकर
पश्चिम पहन रहा है साड़ी
वैश्वीकरण का
झुनझुना बजाने वाले हम
अपने स्वाभिमान की रोटी छोड़कर
खा रहे हैं दूसरों की जूठन
हिन्दुस्तान में
हिंदी का दाह-संस्कार करके
आयोजित कर रहे हैं
विदेशों में
विश्व -हिंदी सम्मेलन
मांगकर खाने की आदत
गयी नहीं अभी तक इसलिए
इंडिया को सभ्य बनाने का ठेका

हमने दे दिया है फिर से एक बार
ईस्ट -इंडिया कम्पनी को |



खरीददार कौन नहीं है ?
हमारे देश के बाजार में
बिक रहा है सब कुछ
जो चाहो खरीद लो
पैसे पास हों तो
लाल किला भी
हो सकता है तुम्हारा
दलित का दर्जा पालो
तो पांचो अंगुलियाँ घी में
साथ ही सरकारी दामाद
होने का रुतबा भी
और संसद की आरक्षित
सीट पर बैठने का गौरव भी
नोट और वोट का व्यापार
यहाँ जोर शोर से
फल फूल रहा है
बेचीं जा रही हैं
आत्माएं भी
हिन्दुस्तान बन गया है
एक ऐसा शापिंग माल
जहाँ ब्रांडेड चीजों के साथ
बिक रहे हैं हम भी
माताएं बेच रही हैं कोख
बेटियां अस्मत
भाई लगा रहे हैं बहनों की बोली
दलालों ने बना दिया है
देश को कोठा
खरीददार कौन नहीं है ?

गुरु घंटाल
गला फाड़ कर चिल्लाने वाले
देश के नुमाइंदे नहीं
पेशेवर दलाल हैं
इनकी बड़ी मोटी खाल है
काले इतने
कि कालिख पोतने पर भी
एक जैसे लगते हैं
ये ठग देश के
नाम पर ठगते हैं
दिन में सोते हैं
रात को जगते हैं
इनका सम्बन्ध
उन अंधेरों से है
जहाँ मृतात्माओं का साम्राज्य है
जहाँ जाने पर आदमी
रास्ता भूल जाता है
इनकी ज़िन्दगी
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
एक लाश है
जहाँ दुर्गन्ध है ,कुलबुलाते कीड़े हैं
ढेर साड़ी भिनभिनाती मक्खियाँ हैं
इनके साए में
आतंकवाद पलता है
देश की सीमायें
पड़ जाती हैं खतरे में
ये गुरु घंटाल
घोटाला करने में माहिर हैं

रिश्वत को उपहार कहकर
कानून को ठेंगा दिखाते हैं
कुर्सी की खातिर
देश को बेच खाते हैं |

याद

जिस दिन
गाँव की छोटी डगर छूटी
पाँव बढ़े शहर की
लम्बी सड़क पर
बार -बार थरथराये
होंठ कुछ कहने को फड़के
ट्रकों के भारी पहियों के बीच
कुचले जाने की संभावना ने
मन को बेचैन किया
कुछ सपने थे
जिन्होंने हाथ थामकर
अजनबी राहों पर चलना सिखाया
धुएँ के गुब्बार के बीच
आँखें धुंधलाई
पर बनी रही सपनों की चमक -चांदनी
इन्द्रधनुषों के रंग में
रंगीन बना जीवन
अपने को खोकर
बहुत कुछ पाया
पर आज भी पुरानी राहें
जब पुकारती हैं प्यार से
बड़े रास्ते पराये लगने लगते हैं
सपनों की चांदनी ,इन्द्रधनुषों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
भूलने लगते हैं किताबों के नाम
सिर्फ एक छोटी स्लेट
और कुछ दूधिया अक्षर
याद रह जाते हैं |

Wednesday 2 March 2011

सूरज से संवाद

एक दिन सूरज ने
हंसकर कहा -
जीवन में मैंने भी
बहुत कुछ सहा
आग के दरिया में
तैरता हूँ हर पल
डूबना विश्राम नहीं
सिर्फ एक छलना है
मुझको तो रात- दिन
जलना ही जलना है
देवता बन जाओ तो
ऐसा ही होता है
होठ मुस्कुराते हैं

और मन रोता है
डाल दिया मुझपर क्यों
रोशनी का भार
बेफिक्र बन बैठा
पूरा संसार
क्या कहें दुनिया में
ऐसा ही होता है
फसल कोई काटता है
बीज कोई बोता है|

ना चंदा रोना मत
क्या हुआ
लौटा दी गई
तुम्हारी डोली
सिन्दूर का मान
तुमने रखा
पर वे नहीं रख सके
जो पैसों के भूखे थे
तुम्हारी आँखों की पीड़ा
और दिल पर लगे
गहरे चोट के निशान
नहीं दिखे किसी को
तुम्हारी बेचारगी पर
दिखाई जाने वाली दया
तुम्हें कमजोर बना देगी
चुटकी भर सिन्दूर
इतना महत्वपूर्ण नहीं होता
कि उसके लिए
बरबाद कर दिया जाय 
अपना समूचा जीवन 
तुम जिओ अपने लिए 
अपनी अस्मिता की खातिर 
उठो अपनी पूरी ताकत के साथ 
इससे पहले कि कोई गुप्त कहे 
'अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी '  
या कोई प्रसाद तुम्हें
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत की तरह
बहने का सुझाव दे |

मुझ से यह नहीं होगा
तुम चाहते हो
भाट चारणों की तरह
मैं गाऊं तुम्हारी विरुदावली
और बदले में पाऊँ
राजदरबारी कवि का खिताब
या कोई ऐसी उपाधि
जो रात भर में बनादे
मुझे महाकवि
तुम्हारी तिजोरी में
रख दूं अपनी आत्मा
बटोर लूं ढेर सारे इनाम
तुम्हारी अनुकम्पा से छपी
किताबों का ढेर दिखाकर 
महान रचनाकार
होने का दावा करूँ
पृथ्वीराज !क्षमा करना
मैं चंदवरदाई नहीं 
मेरी कविता के विषय 
मेरे देश के करोड़ों लोग हैं
जिनके सर पर कोई ताज नहीं
न हथेलियों पर रोटी है
न आँखों में नींद
फिर भी लड़ रहे हैं
दूसरों की खातिर
उन्हें भूलकर
मैं तुम्हारी बात करूँ
मुझसे यह नहीं होगा |

Tuesday 1 March 2011

और कितने मनु ?

इस्तेमाल के बाद
झोंक देते हैं कभी तंदूर में
कभी विरोध करने पर
बिखरा देते हैं बोटियाँ
भोग्या है आज भी
वह उनके लिए
हर विज्ञापन में
करते हैं वह
उसके जिस्म की नुमाइश
प्रस्तुत की जाती है ऐसे
कि पुरुषों को रिझाना ही
उसके जीवन का लक्ष्य है
आज भी मनुओं कि इच्छा पर
वह जन्म लेती और मरती है
आगे भी उनके वारिस
तय करेंगे उसके जीवन की दिशाएं
यह और बात है
कि शक्ति के लिए दुर्गा
विद्या के लिए सरस्वती
धन के लिए लक्ष्मी
की शरण में आज भी जाते हैं
जरा मनुओं की बेहयाई तो देखिये
कि जिससे भीख मांगकर
हर चीज लाते हैं
उसी की आचार -संहिता बनाते हैं


मेरे बाबूजी
अँधेरे की कोख से निकालकर
सुनहली धूप में मुझे नहलाया
बीहड़ रास्तों पर चलना सिखाया
उनके हिमालय जैसे
कन्धों पर खड़े होकर
कई बार आकाश से
मैंने हाथ मिलाया
धूप ,आंधी -पानी में
खड़े रहे हमेशा मेरे साथ
लड़े हर तूफ़ान से
कवच बनकर हिफ़ाजत की
न सूखे कभी मेरे भीतर की हरियाली
इसलिए रोपा मेरी आँखों में
ढेर सारी दूब
सिखाया बार -बार
कि सच्चाई और साहस से
जीती जा सकती है हर लड़ाई
काँटों में घिरे गुलाब की तरह
खिलकर बिखेरा सौरभ
मेरे आँखों की आभा
होठों की मुस्कुराहट
मुट्ठियों के संकल्प
उनकी अमानत हैं
मेरी कलम ,मेरे शब्द
उनके उपहार हैं
गीता ,रामायण ,वेद से भी पावन
बाबूजी का प्यार है.|


Monday 28 February 2011

एक वार्तालाप
उस दिन
संसदीय बहस के दौरान
मिल गए घीसू -माधव
भुने आलुओं को चुराकर
खाने की बात पर हँसे 
बोले - गुजरे ज़माने की बातें
क्यों करते हो जनाब
अब तो हम हवाला का
हलवा खाते हैं
कफ़न के पैसों का घोटाला
मामूली बात थी
बड़ों के साथ
बड़ा सौदा करते हैं
कलम के सिपाही
हम पर कलम उठाने से
कतराते हैं
लिखते हैं हमारे लिए
लच्छेदार भाषण
वे पाते हैं नोट , हम वोट
ठाकुर का कुआं
हमारे कब्जे में है
हल्कू बन गया है
ट्रेड यूनियन का लीडर
खो गया है हामिद
ईदगाह के मेले में
बुधिया का शव
बढ़ा रहा है
विधान सभा की शोभा
चुनाव नजदीक जो है
लोकतंत्र का लोकाचार 
हमने भी सीख लिया है 
शतरंज के खिलाड़ी 
बन गए  हैं हम भी 
बिछा देते हैं मौका देखकर 
अपनी बिसात 
नहीं समझे क्या हमारी बात ? 



गाँव की पाठशाला  
गुरुआइन की पाठशाला
सूनी हो गई है
अब किरपा चाचा के आँगन में
पढ़ रहे हैं गाँव के बच्चे
ककरी क खरहा  ख
गदहा ग घड़ी घ
बन गए हैं गेंदा के फूल
डालिया और क्रिसेंथमम की तरह
वर्णों की फुलवारी में
तन कर खड़े हैं
ऐ फार ऐपल बी फार बाल
खुनसहवा बाबा के
कुएं की गड़ारी
डूब गयी शर्म से पानी में
जिस दिन बच्चे कहने लगे
एक एकाई की जगह
वन- टू-थ्री -फोर
छछिया भरी छाछ पर
नाचने वाला कन्हैया जब
पेप्सी पीने लगा
तब रसखान और सूरदास
आ गए पाठ्यक्रमों के
हाशिये से बाहर
गाँव का सिरफिरा
सेंट मेरी कान्वेंट स्कूल
गुरुआइन की पाठशाला को
मुँह चिढ़ाता है
अम्मा -बाबूजी बन गए मम्मी -डैडी
अब उनका बेटा
`दूर देश से आई तितली ' नहीं
ट्विंकल- ट्विंकल लिटिल स्टार गाता है |