Monday 28 February 2011

एक वार्तालाप
उस दिन
संसदीय बहस के दौरान
मिल गए घीसू -माधव
भुने आलुओं को चुराकर
खाने की बात पर हँसे 
बोले - गुजरे ज़माने की बातें
क्यों करते हो जनाब
अब तो हम हवाला का
हलवा खाते हैं
कफ़न के पैसों का घोटाला
मामूली बात थी
बड़ों के साथ
बड़ा सौदा करते हैं
कलम के सिपाही
हम पर कलम उठाने से
कतराते हैं
लिखते हैं हमारे लिए
लच्छेदार भाषण
वे पाते हैं नोट , हम वोट
ठाकुर का कुआं
हमारे कब्जे में है
हल्कू बन गया है
ट्रेड यूनियन का लीडर
खो गया है हामिद
ईदगाह के मेले में
बुधिया का शव
बढ़ा रहा है
विधान सभा की शोभा
चुनाव नजदीक जो है
लोकतंत्र का लोकाचार 
हमने भी सीख लिया है 
शतरंज के खिलाड़ी 
बन गए  हैं हम भी 
बिछा देते हैं मौका देखकर 
अपनी बिसात 
नहीं समझे क्या हमारी बात ? 



गाँव की पाठशाला  
गुरुआइन की पाठशाला
सूनी हो गई है
अब किरपा चाचा के आँगन में
पढ़ रहे हैं गाँव के बच्चे
ककरी क खरहा  ख
गदहा ग घड़ी घ
बन गए हैं गेंदा के फूल
डालिया और क्रिसेंथमम की तरह
वर्णों की फुलवारी में
तन कर खड़े हैं
ऐ फार ऐपल बी फार बाल
खुनसहवा बाबा के
कुएं की गड़ारी
डूब गयी शर्म से पानी में
जिस दिन बच्चे कहने लगे
एक एकाई की जगह
वन- टू-थ्री -फोर
छछिया भरी छाछ पर
नाचने वाला कन्हैया जब
पेप्सी पीने लगा
तब रसखान और सूरदास
आ गए पाठ्यक्रमों के
हाशिये से बाहर
गाँव का सिरफिरा
सेंट मेरी कान्वेंट स्कूल
गुरुआइन की पाठशाला को
मुँह चिढ़ाता है
अम्मा -बाबूजी बन गए मम्मी -डैडी
अब उनका बेटा
`दूर देश से आई तितली ' नहीं
ट्विंकल- ट्विंकल लिटिल स्टार गाता है |

Sunday 27 February 2011

क्या -क्या बेचोगे ?
माटी बेची घाटी बेची
शर्मो -हया से दूर
हुजूर क्या -क्या बेचोगे ?
गांधीजी की टोपी बेची 
गोकुल बेचा, गोपी बेची  
वृन्दाबन के कुंज बिके  सब  
कान्हा की बाँसुरिया बेची
देश बिक गया ,वेश बिक गया
अपनी हर पहचान बिक गयी
चौराहे पर खड़े चोर ने
खुद ही अपनी जान बेच दी
बैसाखी को ढूँढ  रहा जो
उसने अपनी टांग बेच दी
उल्लू बन बैठे हो तुम जो
तुमने अपनी आँख बेच दी
दीन -धरम ईमान बेचकर
टुकड़ों पर पलता है अब जो
कहते हैं उन नेताओं ने
अपना हिन्दुस्तान बेचकर
खोला है अपना सब खाता
खतरों में हम घिरे खड़े हैं
और तुमने तलवार बेच दी
साँसें नहीं जियें हम कैसे
पानी नहीं पियें हम कैसे
प्यासे तड़प रहे हैं हम
तुमने गंगा की धार बेच दी
नोट -वोट की खातिर तुमने
भारत का अभिमान बेचकर
क्या पाया ये तुम ही जानो
हमें सिर्फ इतना बतला दो
माँ की अस्मत को भी बेचा
हुए नशे में चूर
हुजूर क्या -क्या बेचोगे ?

मजबूरी
टेढ़ी मेढ़ी राहें थीं
आस- पास घना कुहरा था
पर कदम कभी डगमगाए नहीं
भरोसा था रास्तों पर
मंज़िल  पर यकीन था
दिन में तपती धूप थी
रात में तुषार बिंदु
ज़िन्दगी कट रही थी
हँसते -मुस्कुराते
काँटों में खिले गुलाब जैसे
सुगंधमय सपने थे 
फागुन- चैती के गीतों की धुन थी 
कल्पना के रंगीन पंख थे 
माटी की महक लिए 
झूमती हवायें थीं 
बादल थे बारिश थी 
कागज की नाव थी 
सुन्दर एहसास थे 
और तब अपनों के 
हम कितने पास थे 
आज सिर्फ भटकन है 
हम कितने बेमन हैं 
पतझड़ सा मौसम है 
धूसर आकाश है 
मन मेरा रेहन है 
इस राजधानी में 
कैसे छुडाएं उसे
समझ नहीं आता है
यादें भी डूब रहीं
आँखों के पानी में |

Friday 25 February 2011

 माँ जैसी रात  

इतना बड़ा आँचल है उसका 
कि उसकी छाया में
सोती है सारी दुनिया
थकी पलकों में
सजाकर रंगीन सपने
थपकियाँ देती है ,
सहलाती है अपने हर बच्चे को
चाहे वह फुटपाथ की
कठोर ज़मीन पर सोया हो
या किसी नाले क़ी दुर्गन्धयुक्त
गीली मिट्टी के किनारे
समेटकर अपने सीने में
सबके जिस्म का दर्द
चली जाती है चुपचाप
कि बच्चे सुबह उठें तो
तैयार रहें 
एक नई जंग के लिए 
सोचती हूँ 
नहीं होती अगर 
माँ जैसी रात 
हम भटकते ही रहते ख्वाहिशों के कंटीले जंगल में 
कौन रखता 
जिन्दगी की तपिश  से
झुलसते माथे पर
अपना हिमालय जैसा हाथ ?

जनरल डायर की वापसी
वह लौटा है भारत
इस बार कई नए रूपों में
जलियाँवालाबाग का लहू 
भिगोने लगा है 
असम और महाराष्ट्र को 
खामोश हैं उधम सिंह के बच्चे 
अरबों लोगों का खून 
नहीं खौलता उस तरह 
जैसे तीस करोड़ का खौलता था
आज़ादी के बाद भी
विस्थापित हैं अपने ही देश में
गुनाह सिर्फ इतना
कि अपना क्यों समझा
पूरे हिंदुस्तान को
बिना इसकी जाँच किये
कि जाति का रंग
वहाँ की मिट्टी से मेल खता है या नहीं
तिलकधारी शिव की आँखों से
डरने लगा है इतिहास भी
नहीं दर्ज करता विवादास्पद घटनाएँ
कहीं नाराज त्रिपुरारी
तांडव न करने लगें
तुलसी को अप्रासंगिक लगती है रामायण
क्योंकि राम और हनुमान ने
बनाली हैं  अलग पार्टियाँ
गांधीगिरी शब्द
गाली की तरह इस्तेमाल होता है
गाँधी के देश में
चर्चित है गुजरात आज भी
पर गाँधी नहीं गोधरा के लिए
सिंगुर और नंदीग्राम के
किसानों के आंसुओं से
नहीं भींगता कामरेड का कोट
अब डायर गोलियों की तरह मुस्कुराता है
यूनियन जैक के सुर में तिरंगा गुनगुनाता है |

Tuesday 22 February 2011

 एक पैगाम 


 आकाश, कब तक ओढ़ोगे
परंपरा की पुरानी चादर, ढोते रहोगे
व्यापक होने का झूठा दंभ, तुम्हारा उद्देश्यहीन विस्तार
नहीं ढक सका है
किसी का नंगापन
छोड़कर कल्पना, वास्तविकता पर उतर आओ, भाई, अपने नीले फलक पर
इन्द्रधनुष नहीं
रोटियां उगाओ।


 कविता

शब्दों के जोड़-तोड़ से
गणित की तरह
हल की जा रही है जो
वह कविता नहीं है
अपनी सामर्थ्य से दूना
बोझ उठाते-उठाते
चटख गयी हैं जिनकी हड्डियाँ
उन मजदूरों के
जिस्म का दर्द है कविता
भूख से लड़ने के लिये
तवे पर पक रही है जो
उस रोटी की गंध है कविता
उतार सकता है जो
खुदा के चेहरे से भी नकाब
वो मजबूत हाथ है कविता
जीती जा सकती है जिससे
बड़ी से बड़ी जंग
वह हथियार है कविता
जिसके आंचल की छाया में
पलते हैं हमारी आँखों के
बेहिसाब सपने
उस माँ का प्यार है कविता
जिसके तुतलाते स्वर
कहना चाहते हैं बहुत कुछ
उस बच्चे की नयी वर्णमाला का
अक्षर है कविता
कविता एकलव्य का अँगूठा नहीं है
कि गुरुदक्षिणा के बहाने
कटवा दिया जाय
वह अर्जुन का गाण्डीव है, कृष्ण का सुदर्शन चक्र।
कविता नदी की क्षीण रेखा नहीं
समुद्र का विस्तार है
जो गुंजित कर सकती है
पूरे ब्रह्माण्ड को
वह झंकार है कविता। **  


 याचना  


 पुरवा, जब मेरे देश जाना
मेरी चंदन माटी की गंध अपनी साँसों में भर लेना, नाप लेना मेरे पोखर मेरे तालाब की थाह
कहीं वे सूखे तो नहीं, झाँक लेना मेरी मैना की कोटर में
उसके अण्डे फूटे तो नहीं, लेकिन पुरवा
जब चंपा की बखरी में जाना
उसकी पलकों को धीरे से सहलाना
देखना, उसके सपने रूठे तो नहीं, मेरी अमराईयों में गूँजती कोयल की कूक
कनेर के पीले फूल
सबको साक्षी बनाना
पूछना, धरती आकाश के रिश्ते
कहीं टूटे तो नहीं, क्या, मेरी सोनजुही
मुझे अब भी याद करती है
उसके वादे,झूठे तो नहीं। **   

 भूल जाओ ..

 नहीं काट सकते
अतल में धँसी
मेरी जड़ों को
तुम्हारी नैतिकता के
जंग लगे भोथरे हथियार
मत आँको मेरा मूल्य
धरती आकाश से नहीं
आकाश धरती से सार्थक है
तुम्हारे पाँव हर बार की तरह
आदर्श का लम्बा रास्ता भूलकर
मेरे अस्तित्व की छोटी पगडण्डी
पर ही लौट आयेंगे
अपना विस्तार,भूल जाओ वामन
मेरी अस्मिता नापने में
तुम्हारे तीन पग छोटे पड़ जायेंगे। **

Monday 21 February 2011

खबर यह है
महाराणा !
मेवाड़ बिक गया |
घास की रोटियाँ खाते -खाते
ऊब गए थे तुम्हारे बच्चे
पीजा और बर्गर का स्वाद
लुभा रहा था उन्हें
देखने लगे थे वे भी
भविष्य के सुनहरे सपने
भामाशाह ने
जिस दिन तुम्हारा साथ छोड़कर
बहुराष्ट्रीय कंपनियों में
अपनी पूँजी लगायी थी
तुम्हारे बच्चे बागी हो गए थे
इतिहास बनाने में
उनकी दिलचस्पी नहीं थी
वे बनना चाहते थे
भविष्य का सुनहला सूरज
उनके कान्वेंट के साथी
चमक रहे थे सितारों की तरह
तब कैसे भाता उन्हें
जंगलों का अँधेरा ?
प्रताप !
प्रसिद्धि  पाने के लिए
उन्होंने तुम्हारा प्रताप ही तो बेचा है
आखिर नाम में रखा भी क्या है ?
अब कोई भी किसी के नाम को
कहाँ रोता है ?
जब सूरज पश्चिम से निकलता है
तो यही होता है |
जंगल का दर्द
खिलखिलाते  लोगों का कारवां
गुजर गया बगल से
वृक्षों के कटे हुए हाथ पांव
बिखरे पड़े थे जहाँ -तहाँ
दर्द जो फूटकर बहा
उसने खुद को झरना कहा
पोंछकर अपनी गीली ऑंखें
नदी मुस्कुराई
तुम क्या जानो पीर पराई
पर्वत पिता ने
दिखाया अपना जख्मी कन्धा
जहरीले नाग
घाटियों को डंस रहे थे
फूल तब भी हंस रहे थे
बादल
आवारा थे ,भटक रहे थे
सच कहने में अटक रहे थे
उसके क्षत -विक्षत सीने पर
हम कंक्रीट के जंगल
बोये जा रहे हैं
इस बात से बेखबर
कि वृक्ष ,नदी ,पहाड़ ,जंगल
खून के आंसू रोये जा रहे हैं |

Sunday 20 February 2011


माँ की विरासत
जिस दिन जन्मी मैं
सोहर नहीं गाया गया
न खुशियाँ  मनी
मुबारक देने वालों के शब्द
अफ़सोस में डूबे थे
पर तुमने उस दिन
एक नन्हा दिया जलाकर
कुछ विरासत में किया मेरे नाम
उस लौ ने दीप्त किया मुझे
कुछ संकल्प ,कुछ सपने भी थे
जिन्होंने अँगुलियों को थामकर
चलना सिखाया 
एक शब्दकोष था
जिसमें बेटे -बेटी का अर्थ एक था
एक धरती थी मेरे पैरों के लिए
एक आकाश था मेरी मुट्ठियों के लिए
गहनों की पिटारी में रखे थे
अस्मिता और आत्मविश्वास जैसे शब्द
तुमने कुछ गुनगुनाया मेरे लिए
वो कविता आज भी
खड़ी है मेरे साथ
बैसाखियाँ न तुमने लीं ,न मुझे दिया
अच्छा किया
तुम्हारे शब्द धारदार हथियारों की तरह
हिफ़ाजत करते हैं मेरी
समाज की संहिता के पन्ने
नहीं पढ़े कभी भी
जब विदा किया तो ऐसा रास्ता दिखाया
जिसने भटकाया नहीं
बिना थके हर मंजिल तक पहुँचाया
माँ!
काश ,तुम्हारी ही तरह अपनी बेटियों को
हर माँ सौंपती ऐसी ही थाती
उनकी आँखों में डाल देती
घी में भींगी एक नन्हीं सी बाती |

भूख   
हम आदमखोर आदमी
खा सकते हैं कुछ भी
हमारी भूख है
सबसे बड़ी भूख
पेट खाली हो तो
हम चबा जाते हैं
अपना ही समूचा जिस्म
जनतंत्र के तंदूर में
दिन रात पकाते  हैं रोटियां
जिसे संविधान के सालन के साथ
खाते हैं चटखारे लेकर
कानून का काला नमक छिड़ककर
बना लेते हैं हर चीज को
थोड़ा और स्वादिष्ट
चौरासी लाख योनियों में
सर्वश्रेस्ठ प्राणी हम 
खा सकते हैं किसी को भी 
खून का नमकीन स्वाद 
बढ़ा   देता है हमारा जायका
हम खा सकते हैं
किसी का समूचा सपना
किसी की नींद
किसी की हंसी
भूख चाहे कैसी भी हो
जब जागती है
तो हमारा रूप
हो जाता है कुछ इस तरह  
कि हम आदमी तो दूर
जानवर कहलाने के
लायक भी नहीं रहते |
दर्द हमें भी होता है
दरख्तों के साये में
हमें भी धूप लगती है
उम्र भर के लिए
कहीं और चले  जाने का
मन भी करता है ये जुबाँ हमसे भी
सी नहीं जाती
दुष्यंत की तरह
एक पत्थर उछालकर
आकाश में सूराख बनाने को
जी मचलता है
पाश की तरह सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक लगता है
हर हत्याकांड के बाद
वीरान आंगनों में चमकता चाँद
हमारी आँखों में गड़ता है
नहीं सो पाते हम भी रात भर 
लगामवाले घोड़ो के साथ 
हमने भी चखा है लोहे का स्वाद 
धूमिल की तरह 
रोटी से खेलनेवालों  से
किया है सवाल
अपना घर जलाकर
भरे बाजार में खड़े कबीर ने
जो लुकाठी हमें दी थी
उसे जलाये रखा है हमने
अपने तमाम साथियों के साथ
जिन्होंने कुम्भनदास की तरह
फतेहपुरसीकरी के 
आमंत्रण को ठुकराया है 
रुई के पुतले 
आने वाली आंधी की थिरकन को 
अनुभव कर सकें 
यह हम भी चाहते हैं 
क्योंकि हमारी रगों में भी 
दुष्यंत ,पाश ,धूमिल 
और कबीर का खून है 
आत्मा के मरने का दर्द 
हमें भी होता है 
उन्हीं की तरह हमारी भी कलम 
लड़ेगी अपने देश के लिए 
जिसके मानचित्र की रेखाएं 
बिगड़ी हुई हैं | 
ऐसा भी होता है

जंगल के चुनाव में 
लड़े आदमी 
कटे ,पिटे ,मरे 
खून बहा माटी में 
उग आये ढेर सारे फूल पौधे 
जिनके नाम 
वनस्पतिशास्त्र की पुस्तकों में नहीं 
राजनीति की सफ़ेद जिल्द वाली 
काली किताब में दर्ज हुए 
नतीजों के दिन जुलूस निकला 
तो आदमी को  छोड़कर
सभी थे उसमें
एक मजबूत पंजे ने
दबोचा दिल्ली की गर्दन
एक कमल कत्ल करवाता रहा
गोधरा  की गलियों में
मेढकी करने लगी हाथी की सवारी
ग्वालों के दक्ष हाथ
करने लगे गणतंत्र का दोहन
जनतंत्र की स्थापना के लिए
चुनाव हुआ जनता में
ताजपोशी हुई भेड़ियों की 
गोटियाँ खेलने वालों ने 
रोटियां खाईं बोटियों के साथ 
अब भेड़िये कर रहे हैं
संविधान में संशोधन
भ्रष्टाचार में लिप्त भांड
कर रहे हैं उनका अनुमोदन
संसद के हर सत्र में
वे जनता को जी भर हँसाते हैं
और एक हम हैं
क़ि हमारा खून  खौलता ही नहीं
हम अपने ही ठन्डे लोहे से
हर वक्त मात खाते हैं |
गांठ
गांठ                      
जोड़ती है
दो विपरीत छोरों को
गांठ लगा देने पर
नहीं बिखरती है माला
गांठ बांध लेने पर नहीं भूलती है कोई बात
पर यही गांठ जब पड़ जाती है
कोमल रिश्तों के बीच
तो दर्द का सबब बन जाती है
ज़िन्दगी बेअदब बन जाती है