मजबूरी
टेढ़ी मेढ़ी राहें थीं
आस- पास घना कुहरा था
पर कदम कभी डगमगाए नहीं
भरोसा था रास्तों पर
मंज़िल पर यकीन था
दिन में तपती धूप थी
रात में तुषार बिंदु
ज़िन्दगी कट रही थी
हँसते -मुस्कुराते
काँटों में खिले गुलाब जैसे
सुगंधमय सपने थे
फागुन- चैती के गीतों की धुन थी
कल्पना के रंगीन पंख थे
माटी की महक लिए
झूमती हवायें थीं
बादल थे बारिश थी
कागज की नाव थी
सुन्दर एहसास थे
और तब अपनों के
हम कितने पास थे
आज सिर्फ भटकन है
हम कितने बेमन हैं
पतझड़ सा मौसम है
धूसर आकाश है
मन मेरा रेहन है
इस राजधानी में
कैसे छुडाएं उसे
समझ नहीं आता है
यादें भी डूब रहीं
आँखों के पानी में |
No comments:
Post a Comment