जंगल का दर्द
खिलखिलाते लोगों का कारवां
गुजर गया बगल से
वृक्षों के कटे हुए हाथ पांव
बिखरे पड़े थे जहाँ -तहाँ
दर्द जो फूटकर बहा
उसने खुद को झरना कहा
पोंछकर अपनी गीली ऑंखें
नदी मुस्कुराई
तुम क्या जानो पीर पराई
पर्वत पिता ने
दिखाया अपना जख्मी कन्धा
जहरीले नाग
घाटियों को डंस रहे थे
फूल तब भी हंस रहे थे
बादल
आवारा थे ,भटक रहे थे
सच कहने में अटक रहे थे
उसके क्षत -विक्षत सीने पर
हम कंक्रीट के जंगल
बोये जा रहे हैं
इस बात से बेखबर
कि वृक्ष ,नदी ,पहाड़ ,जंगल
खून के आंसू रोये जा रहे हैं |
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