Tuesday 22 February 2011

 एक पैगाम 


 आकाश, कब तक ओढ़ोगे
परंपरा की पुरानी चादर, ढोते रहोगे
व्यापक होने का झूठा दंभ, तुम्हारा उद्देश्यहीन विस्तार
नहीं ढक सका है
किसी का नंगापन
छोड़कर कल्पना, वास्तविकता पर उतर आओ, भाई, अपने नीले फलक पर
इन्द्रधनुष नहीं
रोटियां उगाओ।


 कविता

शब्दों के जोड़-तोड़ से
गणित की तरह
हल की जा रही है जो
वह कविता नहीं है
अपनी सामर्थ्य से दूना
बोझ उठाते-उठाते
चटख गयी हैं जिनकी हड्डियाँ
उन मजदूरों के
जिस्म का दर्द है कविता
भूख से लड़ने के लिये
तवे पर पक रही है जो
उस रोटी की गंध है कविता
उतार सकता है जो
खुदा के चेहरे से भी नकाब
वो मजबूत हाथ है कविता
जीती जा सकती है जिससे
बड़ी से बड़ी जंग
वह हथियार है कविता
जिसके आंचल की छाया में
पलते हैं हमारी आँखों के
बेहिसाब सपने
उस माँ का प्यार है कविता
जिसके तुतलाते स्वर
कहना चाहते हैं बहुत कुछ
उस बच्चे की नयी वर्णमाला का
अक्षर है कविता
कविता एकलव्य का अँगूठा नहीं है
कि गुरुदक्षिणा के बहाने
कटवा दिया जाय
वह अर्जुन का गाण्डीव है, कृष्ण का सुदर्शन चक्र।
कविता नदी की क्षीण रेखा नहीं
समुद्र का विस्तार है
जो गुंजित कर सकती है
पूरे ब्रह्माण्ड को
वह झंकार है कविता। **  


 याचना  


 पुरवा, जब मेरे देश जाना
मेरी चंदन माटी की गंध अपनी साँसों में भर लेना, नाप लेना मेरे पोखर मेरे तालाब की थाह
कहीं वे सूखे तो नहीं, झाँक लेना मेरी मैना की कोटर में
उसके अण्डे फूटे तो नहीं, लेकिन पुरवा
जब चंपा की बखरी में जाना
उसकी पलकों को धीरे से सहलाना
देखना, उसके सपने रूठे तो नहीं, मेरी अमराईयों में गूँजती कोयल की कूक
कनेर के पीले फूल
सबको साक्षी बनाना
पूछना, धरती आकाश के रिश्ते
कहीं टूटे तो नहीं, क्या, मेरी सोनजुही
मुझे अब भी याद करती है
उसके वादे,झूठे तो नहीं। **   

 भूल जाओ ..

 नहीं काट सकते
अतल में धँसी
मेरी जड़ों को
तुम्हारी नैतिकता के
जंग लगे भोथरे हथियार
मत आँको मेरा मूल्य
धरती आकाश से नहीं
आकाश धरती से सार्थक है
तुम्हारे पाँव हर बार की तरह
आदर्श का लम्बा रास्ता भूलकर
मेरे अस्तित्व की छोटी पगडण्डी
पर ही लौट आयेंगे
अपना विस्तार,भूल जाओ वामन
मेरी अस्मिता नापने में
तुम्हारे तीन पग छोटे पड़ जायेंगे। **

No comments:

Post a Comment