Tuesday 28 August 2012

चलिए , दलित - दलित खेलते हैं |

चलिए , दलित - दलित खेलते हैं |
खेल कुछ इस तरह होगा
कि होरी करवाएगा
पंडित ' दातादीन ' का " गोदान "
पछाड़ खाकर ' धनिया ' नहीं , गिरेगी ' पंडिताइन '
' कफ़न ' के पैसों की 'पूरी '
 ' मेमसाहब ' खाएँगी
खुरचन खाकर घीसू - माधव
' आरक्षण ' का ढोल बजाएँगे
चौकी - बेलन , घी , पिसान सब उनका लेकर
चिकनी रोटी बेलते हैं '
चलिए , दलित - दलित खेलते हैं |
' हल्कू ' के खेत का चारा
नीलगायें नहीं ' नेताजी ' खायेंगे
डकार लेंगे घर में
संसद में भूख - भूख चिल्लायेंगे
" हंस " दलित विमर्श करेगा
"कौआ " चलेगा कुटिल चाल
आइये , एक दूसरे को गड्ढे की तरफ ठेलते हैं
चलिए दलित - दलित खेलते हैं |
' सदगति ' सबकी होगी
' दुखी ' की तरह पूरे देश की लाश
गिद्धों की टोली खाएगी
कलमें बिकेंगी , लिखेंगी
कुर्सियों की शान में कसीदे
आदमी आखिर ' आदमी ' है
वह अपनी भोर को करता रहेगा रात के हवाले
आस्तीनों में साँप पालने की फितरत
न आप छोड़ेंगे न हम
तो सर्प - दंश को थोड़ा आप झेलिये
थोड़ा हम झेलते हैं |
चलिए , दलित - दलित खेलते हैं |

Thursday 23 August 2012

ख़्वाब

एक सुबह ऐसी हो 
कि हर होठों पर  
चमके हँसी तुषार बिंदु की तरह |
हर आँख बन जाये स्नेह का झरना
भावनाओं की उत्ताल तरंगें इस तरह  उठें
कि अंतर्मन उद्वेलित  हो सिन्धु की तरह |
लोग अविश्वास के  कंटीले जंगलों से निकल 
आस्था की सुरम्य घाटियों की सैर करने लगें ,
कोई किसी को न छले |
एक सुबह ऐसी हो
कि मसीहाओं की दुनिया में 
इंसान पूजे जाने लगें ,
सुनहली बालियाँ कर दी जाएँ भूखों के हवाले 
हर प्यासे अधरों पर गंगा की धारा मचलने लगे |
पत्थरों पर उग जाए ढेर सारी हरी दूब 
सूखी नदियाँ रसवंती बनकर
सूरज को अर्घ्य चढ़ाने लगें
वासंती रंग में रंग जाए धरती
नभ गुनगुनाने लगे |
एक रात ऐसी हो
कि चाँदनी अमावस को
मोतियों के नूपुर पहनाने लगे |

Saturday 11 August 2012

रोटियों की खातिर

रोटी तो वहां भी थी
था नमक और प्याज भी
जिसे हथेलियों से फोड़कर
तुम मिर्च के साथ खाया करते थे
तब तुम्हारे सपनों में थे
बादल बरखा और हरे भरे खेत
गांव के डीह पर खड़ा बूढ़ा बरगद
तुमसे जी खोलकर बतियाता था
ऊसर पर उगा कुश भी
तब मखमल जैसा लगता था
और रात जब ओस के मोतियों से
पूरी धरती को सजा दिया करती थी
तो उसकी आभा से दीप्त तुम्हारी आंखों में
लहराने लगती थीं ढेर सारी सुनहली बालियां
तुम्हारी सोच कुछ ऐसी थी
कि अनाज से भरा कोठार
तुम्हें कुबेर का खजाना लगता था
सावन-भादो को पहचानते थे तुम
फागुन तुम्हें गुदगुदाता था
और फिर एक दिन
रोटियों के नाम पर
महत्वाकांक्षाओं के कोहरे से घिरे
तुम भटक गए किसी अनजान दिशा में
तुम्हारे पारदर्शी झूठ के पीछे से
पुकार कर कह रही थीं रोटियां
हे प्रवंचक , मिथ्याभाषी !
दिल पर हाथ रखकर कहो
क्या तुम्हारी लड़ाई वास्तव में
रोटियों की खातिर है
या अपनी रेगिस्तानी हसरतों को
दे दिया है तुमने रोटियों का नाम ?