Tuesday 15 March 2011

नीलम सिंह
जन्म -१३ जुलाई १९६७ ,वाराणसी (उत्तर प्रदेश )

सम्मान - राजीव गाँधी युवा कवि अवार्ड ,आउट स्टैंडिंग यंग पर्सन्स अवार्ड ,मुक्तिबोध स्मृति सम्मान |

प्रकाशन - समकालीन सृजन ,वागर्थ ,अलीक ,अपूर्वा ,काव्यम ,महादरा ,आजकल और अन्य कई पत्र -पत्रिकाएँ |

सम्प्रति -महादेवी बिड़ला गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में अध्यापन |

संपर्क -ऍफ़ /२०३ ,विनायक इन्क्लेव ,५९ काली चरण घोष रोड ,कोलकाता -५०
अन्वित की एक और कविता -

सर्वेसर्वा !  जवाब दें . . .

सर्वेसर्वा ! जवाब दें
स्वर्ण मुकुटधारी हमारा यह देश
बन गया राह में
लोगों के पद आघातों को
सहता पत्थर
ऐसा हुआ क्योंकर ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
देश की सीमा पर
उसकी सुरक्षा -शपथ के नीचे
अपने लहू से हस्ताक्षर करने वाले
सुपुत्र की माँ को
क्यों कर दिया जाता है बेघर ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
अवर्णनीय गरीबी 
और भुखमरी के 
असंख्य थपेड़े झेलते 
देश के दरिद्रनारायण को 
आपके विनाशकारी आघातों से 
संभलने के अवसर तक 
क्यों नहीं मिलते ?
सर्वेसर्वा जवाब दें |
और यह बात भी निराली है
कि यह मंहगाई डायन जिसने
तंगहाल कर रखा है
जनसाधारण की जेब को
आखिर क्यों करें आप
अर्थनीति रुपी अंकुश से उसपे वार
 वह भी तो आप ही की पाली है !
सर्वेसर्वा जवाब दें |
सर्वेसर्वा !
वे प्रतिष्ठित किये जाते हैं
ऊँचे से ऊँचे पदों पर ,
जो कि अयोग्य हैं मगर
आपकी सेवा में नियुक्त हैं
किन्तु योग्य व्यक्ति की चीखें
नहीं सुनता कोई
क्योंकि वे या तो असहाय 
अथवा आपकी सेवा में
न होने के अभियुक्त हैं |
सर्वेसर्वा ! यह क्या हुआ ?
इनमें से एक भी सवाल का उत्तर
आपको नहीं आता है ?
शायद इन प्रश्नों   का जवाब
स्विस बैंक में खुला हुआ
आप का खाता है |



Saturday 12 March 2011

अन्वित की कविता -अन्वित एक ऐसा होनहार बच्चा है जो ढाई साल की उम्र से ही कविता गुनगुनाने लगा | आज हम सूरज को नहीं ढकेंगे ,आज हम सूरज को चमकने देंगे या फिर उसका ये कहना कि एक दिन चाँद की रोशनी सितारों में खो जाएगी ,गंगा की लहरें किनारों में खो जाएगी और मेरी जिन्दगी गंगा की लहरों में खो जाएगी  हमें हतप्रभ कर देता था | कभी -कभी हम डर भी  जाते थे कि इतनी छोटी सी उम्र में ऐसी सोच क्या ठीक है ? खैर कवियों के खानदान का बच्चा कुछ भी कह सकता है| प्रतिभा उम्र कि मोहताज नहीं होती |आशा है भविष्य में वह कविता को कोई नया मुकाम देगा |अन्वित अभी मात्र १४ साल की उम्र का है और   १४ साल की उम्र में ऐसी परिपक्वता देखकर दंग हो जाना स्वाभाविक है | उसकी कविता की एक बानगी प्रस्तुत है  -
 
सब ठीक है
हम कहते हैं सब ठीक है
भुखमरों की भुखमरी
हमारी सम्पन्नता की
सलाखों के पीछे से
दहाड़ मारकर करती है विलाप
पर हम उसे अनसुना करके
कहते हैं कि
सब ठीक है
रोजाना देखने को मिलता है
अपने अधिकार की दो रोटियों के लिए
जूझते हुए शोषित जनसमूह पर
रक्त पिपासुओं के पाले हुए
रक्त बीजों की रक्तिम लाठियों के बरसने का मंजर
और खाने का वक्त होते ही
टी वी बंद कर बड़े संतोष मिश्रित
शब्दों में हम कहते हैं
सब ठीक है |
अब भी हमें भरोसा है
कि सब ठीक है
जबकि हमारे कानों में
गूँज रहा है ड्रैगन की जकड़न
और तारों की चुभन सहती
अपनी माटी का दर्द भरा रुदन
फिर भी इस तथ्य को
कि हम इस माटी के बने हैं
अपने इम्पोर्टेड जूतों तले कुचलकर
तथा कानों में लेटेस्ट टेक्नोलोजी के
इम्पोर्टेड सेलफोन के हेडफोन
की उपस्थिति के कारण
अनसुनी कर ,हम कहते हैं
सब ठीक है |
रोज मक्खियों के झुण्ड की तरह
आती है देश की सर्वाधिक
मेहनतकश कौम 
किसानों की मेहनत का फल
देश की जीवनदायिनी  फसलों के
अगणित परिमाणों के
सड़ जाने की ख़बरें
मगर हम पीजा और बर्गर के
विशाल ग्रासों के साथ कहते हैं
सब ठीक है |
सबकुछ ठीक होने की हमारी
धारणा की इम्तेहाँ तो तब हो जाती है
जब कोई बम विस्फोट नामक
मौत की कवायद में मशगूल
मृत्यु के पग
बिलखते अभागे प्राणों को
रौंदकर निकल जाते हैं
तब हम करुणानिधान के
आगे झुककर
संतोषयुक्त चैन की सांस लेते हुए
कि उन बेचारों में हम शामिल नहीं थे
झूठी सांत्वना में
चंद मोमबत्तियां जलाते हैं
फिर झूठी चिंता जताते हुए
किसी स्वार्थी अथवा निकम्मे
आत्मीय -स्वजन के फ्री के फोन से
आये कॉल का उत्तर देते हुए
हम अपने पुराने
संतोषयुक्त लहजे में कहते हैं
कि अरे!सब ठीक है |

Sunday 6 March 2011

सौदा

वे गिरवी रख रहे हैं
विष्णु का सुदर्शनचक्र
राम का धनुष
हनुमान की गदा
अर्जुन का गांडीव
ब्रह्मा का ब्रह्मास्त्र
देश के शस्त्रागार पर
पहरा होगा अब
सफ़ेद भेडिओं का
बुद्ध की धरती पर
केसरिया की जगह
नीला झंडा लहराएगा
बुद्धं शरणम् गच्छामि की अनुगूंज
नहीं रहेगी हवाओं में
अहिंसा जहाँ जन्मी
वहीँ के लोगों के
अहिंसक होने पर
संदेह है उन्हें |
जिस संस्कृति की छाया में
पूरा विश्व पला
उसे बोन्साई बनाकर
वे करना चाहते हैं देश का विकास
लेह ,लद्दाख और कारगिल की
बर्फीली घाटिओं में तैनात
हमारे भाइयों के हाथों में
वे थमा रहे हैं कागज़ की बंदूकें
हिरोशिमा ,नागासाकी ईरान और ईराक में
विध्वंशक ख़ूनी खेल खेलने वाले
हमें पढ़ाएंगे अहिंसा का पाठ
बुद्ध !राहुल ने ही सौदा किया है
सफ़ेद भेडिओं के साथ
और जिसके मुंह से टपक रही है लार
वो खूंखार भेड़िया मादा है
उसके मन में देश ही नहीं
इतिहास को भी बेचने का इरादा है |

Saturday 5 March 2011

आज पुरवाई कहाँ चली ?
बोझा खोल बाबूजी
सटक रहे धान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
खड़ा पुअरोट है
अकेला खलिहान में
ढेंकी की धुन
गूँज उठी है विहान में
अम्मा के ओखल की
बढ़ गई है शान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
आँगन में तुलसी का
छोटा सा पौधा है
मासूम सपनों का
अपने घरौंदा है
रात भी अंजोरिया में
कर आई स्नान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?
बच्चों की यादों में
आँखें बरसती हैं
रास्ता निहारती हैं
पल-पल तरसती हैं
नेह की नियामत का
करती हैं दान
खड़ा गुमशुम सिवान
आज पुरवाई कहाँ चली ?

सुनो -सुनो !

हालू बाबा ,घालू बाबा !
बच्चे बन गए चालू बाबा
अंजर -बंजर ,ऊसर -धूसर
में भी लहराती है बाली
पूरब -पच्छिम ,उत्तर- दक्खिन
से फूटे सूरज की लाली
चुगलखोर ये चोर अंजोरिया 
हो गई है ईर्ष्यालु बाबा
कौन बने हरजोत्ता अब तो
घुरहू बनने चला कलक्टर
कत्तु, खरपत्तु के खेतों में भी
अब चलता है ट्रैक्टर
बी .डी .सी .बन गया बहेतुआ
बीडीओ  बन गया कालू बाबा |
चमरौटी में चमक -चांदनी
ठकुराने ठन-ठन गोपाला
बुझी -बुझी है बाम्हन टोली
नाचे गाएँ झूमें  ग्वाला
अहिराने में जश्न हो रहा
खाओ खूब कचालू बाबा |

काट रहे वे चिड़ियों के पर 
पार कर गए सात समंदर
खड़ी मड़ैया झंख मारती
बने हुए हैं मोती के घर
डमरू बजे विलायत में अब
दौड़ पड़े सब भालू बाबा
हालू बाबा,घालू बाबा
बच्चे बन गए चालू बाबा |

Friday 4 March 2011

मुखौटे वाले
कितना अजीब लगता है
मुखौटे वालों से मिलना
या उनसे बातें करना
जिनके पास
चेहरे वाले मुखौटे के साथ
भाषाई मुखौटा भी है
उनसे तो डर भी लगता है
कि न जाने कब
ये बदल लेंगे अपना रूप
और हम ठगे रह जायेंगे
हम ,जिसके पास असली चेहरा है
अजनबी बन जातें हैं इनके बीच
शब्दों की चाशनी में डुबाकर
ये नीम को तुलसी बना देते हैं
अपने रेगिस्तानी सीने से
सहानुभूति की गंगा बहा आते हैं
मारीच की तरह स्वर्णमृग बनकर
रच लेते हैं छलना का जाल
मुखौटेवाले
बड़े चालाक होते हैं
ये सूखे पेड़ों पर भी
उगा देते हैं नई छाल |

अचम्भे

कुछ अचम्भे
देखे थे कबीर ने
खड़ा सिंह चरा रहा था गाय
कम्बल बरस रहा था
भींग रहा था पानी
कुछ अचम्भे
देख रहे हैं हम भी
जवाहर का गुलाब
उखाड़ रहा है अपने आस -पास
उगे कांटो को
गाँधी की लाठी से गड़ेरिया
हाँक रहा है भेड़
लक्ष्मी बाई की तलवार
अंग्रेजों के म्यान में है
हिटलर लिख रहा है
जनतंत्र की परिभाषा
किसी गोरे का प्रशस्तिगान
राष्ट्रगीत बनकर गूँज रहा है
हर हिन्दुस्तानी के कंठ पर
बंकिम और इकबाल के गीत
राष्ट्रीय पर्वों पर
पढ़ी जाने वाली स्क्रिप्टें हैं
इटली के हांथों में है
भारत के पतंग की डोर
मर्यादापुरुषोत्तम को
कड़वे लगने लगे हैं
शबरी के बेर
ऐसे करोड़ों अचम्भे
देख रहे हैं हम और आप भी |
ये कैसी लड़ाई है
खेतों में
बीज की जगह
बिखेरा जा रहा है बारूद
जंगल के मर्मर संगीत में
घुल रही हैं गोलियों की आवाजें
आदमी मार रहा है
बेगुनाह आदमी को
जिन्हें नाराजगी है
सत्ताखोरों से
सामंतवादी व्यवस्था से
वे उनसे न लड़कर
खड़े हो गए हैं
उसके खिलाफ
जो पहले से ही
दबाया कुचला हुआ है
ये कैसी लड़ाई है
कि अपने दुस्वप्न को
साकार करने के लिए
दूसरों की आँखों में पलते
मासूम सपनों को
रौंद रहे हैं वो
और हम
संवेदनशीलता का नाटक
करने वाले
भ्रष्ट प्रशासन के कन्धों पर
अपनी बंदूकें रखकर
सो रहे हैं चैन की नींद |

संस्कृति की कलमें
बड़े धूम -धाम से
गाजे -बाजे के साथ
लगाई जा रही हैं
हमारी संस्कृति की कलमें
विदेशों में
अपने भाषा ,साहित्य ,कला का
छीछालेदर करने वाले हम
ताल ठोंक रहे हैं
यहाँ न सही
विदेशों में धूम है
हमारी संस्कृति की
भारतीय महिलाएं
भूल गई हैं
सिन्दूर -बिंदी का महत्त्व
और हम यूरोपीय स्त्रियों को
बिंदी लगाकर
कर रहे हैं अपनी
परंपरा का प्रचार
पूरब के कपड़े उतरवाकर
पश्चिम पहन रहा है साड़ी
वैश्वीकरण का
झुनझुना बजाने वाले हम
अपने स्वाभिमान की रोटी छोड़कर
खा रहे हैं दूसरों की जूठन
हिन्दुस्तान में
हिंदी का दाह-संस्कार करके
आयोजित कर रहे हैं
विदेशों में
विश्व -हिंदी सम्मेलन
मांगकर खाने की आदत
गयी नहीं अभी तक इसलिए
इंडिया को सभ्य बनाने का ठेका

हमने दे दिया है फिर से एक बार
ईस्ट -इंडिया कम्पनी को |



खरीददार कौन नहीं है ?
हमारे देश के बाजार में
बिक रहा है सब कुछ
जो चाहो खरीद लो
पैसे पास हों तो
लाल किला भी
हो सकता है तुम्हारा
दलित का दर्जा पालो
तो पांचो अंगुलियाँ घी में
साथ ही सरकारी दामाद
होने का रुतबा भी
और संसद की आरक्षित
सीट पर बैठने का गौरव भी
नोट और वोट का व्यापार
यहाँ जोर शोर से
फल फूल रहा है
बेचीं जा रही हैं
आत्माएं भी
हिन्दुस्तान बन गया है
एक ऐसा शापिंग माल
जहाँ ब्रांडेड चीजों के साथ
बिक रहे हैं हम भी
माताएं बेच रही हैं कोख
बेटियां अस्मत
भाई लगा रहे हैं बहनों की बोली
दलालों ने बना दिया है
देश को कोठा
खरीददार कौन नहीं है ?

गुरु घंटाल
गला फाड़ कर चिल्लाने वाले
देश के नुमाइंदे नहीं
पेशेवर दलाल हैं
इनकी बड़ी मोटी खाल है
काले इतने
कि कालिख पोतने पर भी
एक जैसे लगते हैं
ये ठग देश के
नाम पर ठगते हैं
दिन में सोते हैं
रात को जगते हैं
इनका सम्बन्ध
उन अंधेरों से है
जहाँ मृतात्माओं का साम्राज्य है
जहाँ जाने पर आदमी
रास्ता भूल जाता है
इनकी ज़िन्दगी
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
एक लाश है
जहाँ दुर्गन्ध है ,कुलबुलाते कीड़े हैं
ढेर साड़ी भिनभिनाती मक्खियाँ हैं
इनके साए में
आतंकवाद पलता है
देश की सीमायें
पड़ जाती हैं खतरे में
ये गुरु घंटाल
घोटाला करने में माहिर हैं

रिश्वत को उपहार कहकर
कानून को ठेंगा दिखाते हैं
कुर्सी की खातिर
देश को बेच खाते हैं |

याद

जिस दिन
गाँव की छोटी डगर छूटी
पाँव बढ़े शहर की
लम्बी सड़क पर
बार -बार थरथराये
होंठ कुछ कहने को फड़के
ट्रकों के भारी पहियों के बीच
कुचले जाने की संभावना ने
मन को बेचैन किया
कुछ सपने थे
जिन्होंने हाथ थामकर
अजनबी राहों पर चलना सिखाया
धुएँ के गुब्बार के बीच
आँखें धुंधलाई
पर बनी रही सपनों की चमक -चांदनी
इन्द्रधनुषों के रंग में
रंगीन बना जीवन
अपने को खोकर
बहुत कुछ पाया
पर आज भी पुरानी राहें
जब पुकारती हैं प्यार से
बड़े रास्ते पराये लगने लगते हैं
सपनों की चांदनी ,इन्द्रधनुषों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
भूलने लगते हैं किताबों के नाम
सिर्फ एक छोटी स्लेट
और कुछ दूधिया अक्षर
याद रह जाते हैं |

Wednesday 2 March 2011

सूरज से संवाद

एक दिन सूरज ने
हंसकर कहा -
जीवन में मैंने भी
बहुत कुछ सहा
आग के दरिया में
तैरता हूँ हर पल
डूबना विश्राम नहीं
सिर्फ एक छलना है
मुझको तो रात- दिन
जलना ही जलना है
देवता बन जाओ तो
ऐसा ही होता है
होठ मुस्कुराते हैं

और मन रोता है
डाल दिया मुझपर क्यों
रोशनी का भार
बेफिक्र बन बैठा
पूरा संसार
क्या कहें दुनिया में
ऐसा ही होता है
फसल कोई काटता है
बीज कोई बोता है|

ना चंदा रोना मत
क्या हुआ
लौटा दी गई
तुम्हारी डोली
सिन्दूर का मान
तुमने रखा
पर वे नहीं रख सके
जो पैसों के भूखे थे
तुम्हारी आँखों की पीड़ा
और दिल पर लगे
गहरे चोट के निशान
नहीं दिखे किसी को
तुम्हारी बेचारगी पर
दिखाई जाने वाली दया
तुम्हें कमजोर बना देगी
चुटकी भर सिन्दूर
इतना महत्वपूर्ण नहीं होता
कि उसके लिए
बरबाद कर दिया जाय 
अपना समूचा जीवन 
तुम जिओ अपने लिए 
अपनी अस्मिता की खातिर 
उठो अपनी पूरी ताकत के साथ 
इससे पहले कि कोई गुप्त कहे 
'अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी '  
या कोई प्रसाद तुम्हें
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत की तरह
बहने का सुझाव दे |

मुझ से यह नहीं होगा
तुम चाहते हो
भाट चारणों की तरह
मैं गाऊं तुम्हारी विरुदावली
और बदले में पाऊँ
राजदरबारी कवि का खिताब
या कोई ऐसी उपाधि
जो रात भर में बनादे
मुझे महाकवि
तुम्हारी तिजोरी में
रख दूं अपनी आत्मा
बटोर लूं ढेर सारे इनाम
तुम्हारी अनुकम्पा से छपी
किताबों का ढेर दिखाकर 
महान रचनाकार
होने का दावा करूँ
पृथ्वीराज !क्षमा करना
मैं चंदवरदाई नहीं 
मेरी कविता के विषय 
मेरे देश के करोड़ों लोग हैं
जिनके सर पर कोई ताज नहीं
न हथेलियों पर रोटी है
न आँखों में नींद
फिर भी लड़ रहे हैं
दूसरों की खातिर
उन्हें भूलकर
मैं तुम्हारी बात करूँ
मुझसे यह नहीं होगा |

Tuesday 1 March 2011

और कितने मनु ?

इस्तेमाल के बाद
झोंक देते हैं कभी तंदूर में
कभी विरोध करने पर
बिखरा देते हैं बोटियाँ
भोग्या है आज भी
वह उनके लिए
हर विज्ञापन में
करते हैं वह
उसके जिस्म की नुमाइश
प्रस्तुत की जाती है ऐसे
कि पुरुषों को रिझाना ही
उसके जीवन का लक्ष्य है
आज भी मनुओं कि इच्छा पर
वह जन्म लेती और मरती है
आगे भी उनके वारिस
तय करेंगे उसके जीवन की दिशाएं
यह और बात है
कि शक्ति के लिए दुर्गा
विद्या के लिए सरस्वती
धन के लिए लक्ष्मी
की शरण में आज भी जाते हैं
जरा मनुओं की बेहयाई तो देखिये
कि जिससे भीख मांगकर
हर चीज लाते हैं
उसी की आचार -संहिता बनाते हैं


मेरे बाबूजी
अँधेरे की कोख से निकालकर
सुनहली धूप में मुझे नहलाया
बीहड़ रास्तों पर चलना सिखाया
उनके हिमालय जैसे
कन्धों पर खड़े होकर
कई बार आकाश से
मैंने हाथ मिलाया
धूप ,आंधी -पानी में
खड़े रहे हमेशा मेरे साथ
लड़े हर तूफ़ान से
कवच बनकर हिफ़ाजत की
न सूखे कभी मेरे भीतर की हरियाली
इसलिए रोपा मेरी आँखों में
ढेर सारी दूब
सिखाया बार -बार
कि सच्चाई और साहस से
जीती जा सकती है हर लड़ाई
काँटों में घिरे गुलाब की तरह
खिलकर बिखेरा सौरभ
मेरे आँखों की आभा
होठों की मुस्कुराहट
मुट्ठियों के संकल्प
उनकी अमानत हैं
मेरी कलम ,मेरे शब्द
उनके उपहार हैं
गीता ,रामायण ,वेद से भी पावन
बाबूजी का प्यार है.|