Sunday 26 June 2011

४ फरवरी १९८७ एक बीता हुआ कल

स्मृतियाँ भी कितनी अजीब होती हैं गाहे - बगाहे मन की दहलीज पर दस्तक देती रहती हैं , एक दिन अज्ञेय जी की कविता दूर्वादल पढ़ रही थी की यादें खींचकर अतीत में ले गयीं | अज्ञेय जी के साथ बिताये पल साकार हो उठे | उन्हें देखकर लगा सरोजिनी नायडू ने ठीक ही कहा था  -' कवि जब स्वयं सुरूप न हो  और व्यक्तित्वहीन हो तो वह सुन्दर रचना कैसे कर सकेगा ? ' अज्ञेय जी के विशाल एवं गरिमामय व्यक्तित्व का दर्शन कर हमारी कल्पनाएँ फीकी पड़ने लगीं , एक तेज सा प्रकाशित हो रहा था उनकी आँखों से | उनकी गंभीर मुख -मुद्रा देखकर प्रश्न पूछने का साहस नहीं हो रहा था पर यह अवसर हम खोना भी नहीं चाहते थे | उन्हीं दिनों बच्चन जी की एक टिप्पड़ी  कविता के सन्दर्भ में पढ़ी थी कि -'वर्त्तमान कविता को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई पानी में डूब गया हो और उसे कृत्रिम सांस दिलाने की कोशिश की जा रही हो |' मैंने उसी सन्दर्भ  में  अज्ञेय जी से पूछा - क्या वास्तव में आज की कविता प्रभावशाली नहीं है ? वो मुस्कुराने लगे फिर कहा -मैं ऐसा नहीं मानता हाँ ,ह्रदय -पक्ष की कमी अवश्य है | आज का युग बुधिप्रधान युग है उसकी साहित्यकारों से ये माँग है कि उन्हें ऐसी रचना प्रदान की जाए और आधुनिक कविता लोकप्रिय भी है | जब समाज को ऐसा लगेगा कि उसे ह्रदय -पक्ष को महत्व देने वाली रचनाओं की जरूरत है और वह उसकी माँग करेगा तो साहित्यकार उसे अवश्य प्रदान करेगा | ' मैंने पुनः प्रश्न किया -आपने ' शेखर एक जीवनी ' में ऐसा क्यों लिखा है कि 'साहित्य का निर्माण मानो जीवित मृत्यु का आह्वान है ? साहित्य सृजन में यह पीड़ा क्यों ? क्या आपको ख़ुशी नहीं होती जब लोग आपकी रचनाएँ पढ़ते हैं ,उससे प्रेरित होते हैं  ?अज्ञेय जी की मुख -मुद्रा गंभीर हो गयी ,उन्होंने कहा -'ख़ुशी होती तो है , ऐसा मैंने इसलिए कहा है क्योंकि यह कार्य वास्तव में बहुत कठिन है | हमारे मन में भावनाएं उठती हैं ,हम उन्हें अभिव्यक्त करते हैं पर रचना पूरी होने पर देखते हैं कि अरे ! यह तो वह है ही नहीं जिसे हम लिखना चाहते थे | तब अजीब सी झुंझलाहट होती है , उन्हें अभिव्यक्त कर देने पर एक अजीब सा खालीपन महसूस होता है |'उन्होंने काल -चिंतन विषय पर वक्तृता  भी दी | आज भी उनके शब्द जैसी कानों में गूँजते हैं - 'महत्व जीवन में काल का नहीं ,क्षणों का है | हम अपने जीवन के पूरे समय को याद  नहीं रखते  ,याद तो विशेष क्षणों को ही करते हैं जो कुछ विशेष स्मृति से युक्त होते हैं  | ' कविता में अभिरुचि होने के कारण मैंने उनसे काव्य - लेखन के विषय में भी बहुत कुछ पूछा जैसे शब्द -प्रयोग में या कथ्य को अभिव्यक्त करने में ,या किसी नयी उपमा के चयन में क्या एहतियात बरतना चाहिए | मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर उन्होंने बड़े धैर्य से दिया | उन्हें एक कवि सम्मलेन में जाना था अतः हमें उनसे विदा लेनी पड़ी पर उनके सान्निध्य में कुछ और पल बिताने को दिल कर रहा था | फिर आया ४ मार्च १९८७ का दिन ! सुना , अज्ञेय जी नहीं रहे | विश्वाश न हुआ पर सत्य को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता था | वह विभूति जो कल तक हमारे बीच थी लुप्त हो गयी | लेकिन मन तो आज भी यही कहता है कि भले ही आज वह हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी रचनाएँ उनकी उपस्थिति का अनुभव हर पल कराती रहती हैं | जब भी उनकी कविता की पुस्तक का कोई पन्ना खोलती हूँ  तो उनका चेहरा शब्दों के बीच से झाँकने लगता है , काश वे पल दुबारा लौट आते !

2 comments:

  1. संस्मरण सराहनीय....

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  2. साहित्य में खोकर ही लेखक नया सृजन करता है।

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