Sunday 31 July 2011

मैं सांप्रदायिक हूँ वे सेक्युलर

मैंने अभी - अभी
गुरूद्वारे में
गुरुग्रंथ साहिब का पाठ किया है
अजमेर शरीफ़ में
मेरे ख्वाजा की दरगाह है
सूली पर चढ़े ईसा का रक्त 
मेरा भी दामन भिगोता  है 
बौधों के सुत्त , इंजील के सरमन
कन्फ्यूसियस के सुवचन
मुझे अच्छे लगते हैं
अच्छी लगती है गीता ,
वेद , पुराण ,उपनिषद भी
मुझे गर्व है अपनी संस्कृति पर
और सेक्युलर होने का प्रमाणपत्र
मुझे उनसे नहीं चाहिए
जो माँ , बहनों की अस्मत बेचकर  
बदले में सेक्युलर होने का ख़िताब पाते हैं
लन्दन के लालों को
गीता से साम्प्रदायिकता की ब़ू आती है
रामायण , महाभारत उन्हें कामिक्स लगते हैं
गंगा में नहाने से
ये कम्युनल हो जाते हैं 
गुण यूरोप का गाते हैं 
रोटी भारत की खाते हैं 
आधुनिकता के नाम पर 
लाना चाहते हैं पाशविकता , नग्नता 
विचरना चाहते हैं कहीं भी  
किसी के भी साथ
मिटाना चाहते है स्त्री - पुरुष का भेद
ये तथाकथित सेक्युलर
भारत को गालियाँ देकर
भारत - रत्न पाते हैं
पढ़ते हैं भारत में
डिग्री ऑक्सफोर्ड से लाते हैं
काली कलम से कुत्सित क़ानून बनाते हैं
इन बुद्धिजीवियों की बुद्धि तो देखिये
ये कुत्ते - बिल्लियों को सभ्य और सुसंस्कृत बताते हैं |






Sunday 24 July 2011

पानी

आकाश से बरसकर
धरती से ख़ुशबू बनकर फूटता
चट्टान के सीने को फोड़कर
आवेग में प्रवाहित
नदी - तालाब के वक्ष पर
शिशु की तरह मचलता
किसी की आँखों में
विद्युत् की तरह चमकता
हरीतिमा के बीच
रजत धारा सा बहता
यौवन के उद्दाम आवेग में
समुद्र बनकर गरजता
अल्हड़ प्रेमी की तरह
झरना बन गुनगुनाता
पानी हमेशा सुन्दर लगता है |
किसी पहाड़ के गले में बाहें डाल
उसके कानों में कुछ कहता है
या अपनी नर्म अँगुलियों से
पृथ्वी के खुरदरे होठों को छूकर
नाज़ुक बना देता है
उसकी हथेलियों पर
मेंहदी बनकर उभरता है
तब पानी प्यार की तरह
मधुमय लगता है
पर किसी भूखे बच्चे के कटोरे में
जब दूध की तरह छलकता है
पानी मुझे सबसे सुन्दर लगता है |

Friday 22 July 2011

बारिश

बारिश का आना !
जैसे माँ का लहराता आँचल |
पानी का बरसना !
ममता से भर आई हों जैसे
पिता की आँखें |
बूँदों का आलिंगन !
मिल रहे हों जैसे किसी अपने से
लम्बे अंतराल के बाद |
माटी की महक !
नवजात बच्चे की देह से
फूट रही हो जैसे सुगंध |
पत्तों का मर्मर संगीत !
बज रही हो प्राणों में
जैसे सरस्वती की वीणा |
बादलों का स्पर्श !
छू लिया हो जैसे किसी ने
लाड़ से , दुलार से |
गर्जना के स्वर !
मंदिर से उठ रही हो जैसे
पवित्र शंख ध्वनि |
गीली मिट्टी , गीला मन
घटाएँ जैसे मधुबन |
आसमान !
रोये - रोये से नयन |
बारिश में भींगना !
जीवन को जी भरकर जीना | 

Wednesday 6 July 2011

उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन

सावन आता है ,
बरसती हैं आँखें हर बरस
तुम्हारी आखिरी राखी
जब बाँधती हूँ भाइयों की कलाई पर
स्मृतियाँ  चीर देती हैं सीना
एक दूसरे से नज़रें  चुराते
छुपाते अपने आँखों की नमीं
हम मर - मर कर जीते हैं
माँ की ममता तकिये में मुँह छुपाये
रात भर रोती है ,
बाबूजी का कंधा असमय झुक जाता है 
आँगन की तुलसी सिसकती है 
तीज त्योहारों पर परस देती हैं माँ 
आज भी चार थालियाँ 
त्रिशंकु की तरह हम तीन 
झूलते हैं यातना के आकाश में |
ये कैसी क्रूरता हुई हमारे साथ 
कि दूध  पिलाया जिन हाथों से
उसी से पिलाया तुलसी और गंगा जल !
तुम्हारे जाने के बाद
पूनम की रातें अमावस बन गईं
ओ मेरी चंदा !
जिस दिन तुम्हें खोया
उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन |

Saturday 2 July 2011

अरे यायावर रहेगा याद ! [जलदापारा फ़ॉरेस्ट ]

वन की सुरम्य पगडंडियों से गुजरते हुए अनुभव हो रहा था कि एक पावन सुगंध वातावरण को सुरभित किये हुए है ठीक वैसे ही जैसे यज्ञ - कुण्ड से उठती महक मन -प्राण में रच - बस जाती है | वैदिक ऋचाओं सा गूँज रहा था वन का मधुर  संगीत ! पत्तों , किसलयों ,फलों - फूलों की महक मन को विभोर कर रही थी |
                                          संध्या का साँवला आँचल लहरा रहा था | आकाश का जादू देखने लायक था | नीले , पीले , गुलाबी , लाल , हरे , सुनहले रंगों के सरोवर में आकाश डुबकियाँ लगा रहा था | उस रंगीन सरोवर से नहाकर निकलते बादल सद्यः स्नात शिशुओं की तरह प्रतीत हो रहे थे | पक्षियों का कलरव वातावरण की निस्तब्धता को भंग  कर रहा था | वे अपने बसेरे को लौट  आये थे , शाखाओं पर अपनी जगह बनाने को अस्थिर हो रहे थे |
                              हम   घने वन के बीच प्रकृति के बिलकुल करीब थे , इतने निकट कि उसकी साँसों की अनुगूँज सुनाई पड़ रही थी जैसे माँ के वक्ष से लिपटे होने पर उसकी साँसों का स्पंदन सुनाई देता है | मन स्निग्ध भावनाओं के निर्झर में नहाने लगा ,होठों से फूटने लगे प्रार्थना के अस्फुट स्वर - ' विधाता ! हमें सदबुद्धि दो कि छाया देने वाले प्रकृति के आँचल को हम तार - तार न करें | ' आगे बढ़ते समय कुछ वन्य जीवों के दर्शन का सुयोग भी मिल रहा था | उस दिन हम शायद शुभ मुहूर्त में निकले थे | हरी झाड़ियों के बीच से निकलकर एक सुन्दर हिरण हमारे रास्ते के बिलकुल पास खड़ा हो गया ,हमने गाड़ी रोक दी ,वह शायद जड़ और हतप्रभ था , हिल भी नहीं रहा था | हमें भी उस भीतु प्राणि के इस व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था | हमने जी भरकर उसकी तस्वीरें लीं ,वह लगभग पाँच मिनट तक वहीँ खड़ा रहा | गाड़ी स्टार्ट करने पर आवाज़ सुनकर भागा | थोड़ी दूर जाने पर जंगली भैंसों का एक झुण्ड मिला | सेनानायक ने हमें रुक जाने की चेतावनी दी | वह विशालकाय था प्रायः हाथी जैसा लम्बा -चौड़ा | रास्ते के बीचों - बीच खड़ा वह अपने साथियों को रास्ता पार करा रहा था और लगातार हम पर नज़रें रखे हुए था | गाड़ी की खिड़कियों के शीशे चढ़ाकर हम दम साधे बैठे हुए थे |रेंजर बता रहा था कि यदि यह आक्रामक हो जाय और हमारी तरफ पलट जाय तो बचना मुश्किल है | जंगली भैंसों के आक्रमण के कई किस्से उसने हमें बताये | जब वह चला गया तब हम आगे बढ़े | साम्भर  हिरण , बारहसिंघा ,जंगली सूअर और तरह -तरह के पशु - पक्षियों का अवलोकन करते जब हम हालाँग नदी के जल सतह पर पड़ती सूर्य की स्वर्ण - रश्मियों का नर्तन देखने लगे तभी दृष्टि समीप के एक वृक्ष पर पड़ी जिसकी शाखाओं पर सैकड़ों मोर -मोरनी बैठे हुए थे | ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था |
                                    तोरसा नदी पार कर हम जिस जगह पहुँचे वहाँ हाथियों का झुण्ड मस्ती में झूम रहा था | कुछ के बच्चे भी उनके साथ थे | वन अधिकारी ओमप्रकाश ने उनके विषय में काफी जानकारियाँ दीं | शाम ढल रही थी और रात आने को थी | वन के सुरक्षा कर्मी पेट्रोलिंग के लिए निकल पड़े थे | मस्त गैंडे अपनी साम्राज्य सीमा में विहार करते नज़र आये | जलदापारा फ़ॉरेस्ट वैसे भी गैंडों के लिए ही  प्रसिद्ध है | चारो तरफ अँधेरा फैला हुआ था | हम तोरसा नदी के किनारे खड़े उसकी लहरों का संगीत सुन रहे थे | वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था | ड्राईवर प्रशांत ने कहा रात होने से पहले हम लौट चलें तो बेहतर होगा | मन मारकर हम वापस लौट पड़े | अँधेरा गहरा रहा था , अचानक प्रशांत ने कहा -' वो देखिये ! ' उसके इशारे पर हमने देखा एक हिरण एक गिरे हुए वृक्ष के तने पर बैठा हुआ था | आगे जाने पर वह जंगली भैंसा भी वापस दिख गया शायद वह टोह ले रहा था कि उसके क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करनेवाले हम घुसपैठिये बाहर निकले कि नहीं |
                                            जंगल के बीच बने वाच टावर पर चढ़कर हमने वन के सौंदर्य को मन -प्राण भर निहारा | आकाश का सौंदर्य बदल चुका था | उसके काले फलक पर बिखरा सिन्दूरी रंग देख लग रहा था हम किसी परीलोक  में विहार कर रहे हैं | ड्राईवर ने खिड़कियों के शीशे ऊपर चढ़ा लेने को कहा क्योंकि खतरा हो सकता था और हम थे कि हाथ बाहर निकालकर तस्वीरें ले रहे थे | जी कर रहा था इस समूचे सौंदर्य को कैमरे में कैद कर लें | सुरेश नाराज हो रहे थे - ' तुम तो आकाश और बादलों को देख पागल हो जाती हो | ' बच्चे भी मना कर रहे थे | बुझे मन से मैंने सबकी भावनाओं का सम्मान करते हुए कैमरा रख दिया पर खिड़की खुली रही | मैं उस हवा को वन - गंध को छोड़ना नहीं चाहती थी | हमने और सोनू ने लगभग सात सौ तस्वीरें उतारी थीं | सब चिढ़ा रहे थे -' ये लोग भावी फोटोग्राफर हैं , इनके फोटो की प्रदर्शनी लगेगी | 'हम मुस्कुराते रहे |
                                                                दूसरे दिन सुबह पर्यटकों के शोर शराबे से नींद खुली तो खिड़की से देखा एक गैंडा रेस्ट हॉउस के बिलकुल करीब आ गया था वह पास के मैदान में रखे हुए नमक को खाने आया था जो वन - विभाग के कर्मचारियों ने रखा था | शहरी लोग उसे देखकर पागल हुए जा रहे थे | सुरेश ने उसकी बीसों तस्वीरें उतारीं और उसके क्रिया कलापों की देर तक रिकार्डिंग की | मैंने चुटकी लेते हुए कहा - ' क्यों जनाब ! मैं तो बादलों की बेटी हूँ पर आप कबसे गैंडा प्रेमी हो गए ? ' वे बोले अरे यार ! क्या मस्त अदाएँ है उसकी , देखो , देखो | हम सब ठहाका मारकर हँस पड़े | इस स्थान को कई बार देख चुकी हूँ ,परन्तु मन नहीं भरता जी चाहता है इसके सौंदर्य को ह्रदय में सदा के लिए बसा लूँ |
गठरी वाली औरतें

उनकी आँखों में
हँसता है भादो का आसमान
और साँसों में धान की दूधिया महक
बरगद के बरोह जैसी बांहों में
ब्रह्माण्ड  उठाये
अपने खुरदुरे पैरों से
धरती को गुदगुदाते
भीड़ भरी रेल में
बैठने की जगह बनाते
हँसते - खिलखिलाते
वे खोलती हैं अपनी गठरियाँ
और रोटियों के साथ
निगल जाती हैं समूचा दर्द
उनके जिस्म के सितार पर
बजती रहती है ज़िन्दगी की धुन 
उनके पसीने से आती है लोहे की गंध 
और शब्दों के धार से चीर देती हैं 
किसी का भी कलेजा 
अपने आँचल में बाँधकर
चटख रंगों वाले सपने 
वे खिल जाया करती हैं 
गर्मियों में गुलमोहर की तरह 
गठरी वाली औरतें महकती हैं 
कभी नागफनी , कभी गुलाब की तरह |