Thursday 28 April 2011

कुछ पल जो कभी नहीं भूलते

          ( १ )

बारिश में भींगने का सुख क्या होता है ये कौन नहीं जानता , हम भी उन बारिश की बूँदों की कोमल छुअन के लिए तरसते | मौका मिलते ही सबकी आँखों में धूल झोंककर  बाहर भाग जाते ,कभी तालाब से सफ़ेद कुइयों के ढेर सारे फूल तोड़ते , कभी पैरों में मिट्टी लपेट कर मिट्टी के जूते पहनते , कभी मछली पकड़ने के लिए कंटिया  लेकर तालाब के किनारे घंटों समाधि लगाते | एक दिन कुछ यूँ हुआ कि  मेरी  वंशी में एक बड़ी मछली फँस गई पास में ही भाई नीलकमल भी थे हमने मिलकर डोर को खींचना शुरू किया मछली ऊपर आई पर यह क्या ? कच्ची डोर टूट गई और मछली फिर से पानी के अंदर ! हमने जी भरके उसे कोसा फिर दोनों ने निर्णय लिया कि हार नहीं मानेगें | दुकान जाकर नई कंटिया और मजबूत धागा खरीदकर पुनः उस अभियान में लग गए | घंटों बाद तमाम प्रार्थनाओं के फलस्वरूप फिर एक मछली कांटे में फँसी इस बार कोई चूक नहीं हुई , हम उछलते -कूदते  उसे लेकर एक विजयी योद्धा की तरह घर लौटे और सबको अपनी गौरव गाथा सुनाई | माँ ने कहा अब बाहर मत निकलना पहले ही काफी भींग चुके हो | वह काम में  लग गयीं और हम फिर चम्पत  ! शाम हो गई थी हमने देखा नीम के पेड़ की जड़ों में एक गौरैया छटपटा रही है | वह बुरी तरह भींग  गई थी , अब उसकी जान बचाने का सवाल उठा , हम उसे बड़ी नजाकत से उठाकर दादाजी की  बैठक में ले गए और दीवार में बनी आलमारी  में रुई बिछाकर उसे रख दिया ,छुपकर खाने के लिए थोड़ा  चावल और पीने का पानी भी जुटा दिया , पहचान के लिए पंखों में लाल रंग लगा दिया | सारी व्यवस्था करके हम घर वापस आ गए |किसी को कानों -कान खबर नहीं हुई | रात भर नींद नहीं आई , हमारी बेचैनी देख माँ बार -बार पूछतीं क्या बात है ? तुमलोग इतने परेशान क्यों हो ? हम खामोश रहे | भोर होते ही धड़कते दिल से वहाँ पहुँचे  | सोच रहे थे पता नहीं बेचारी चिड़िया जिन्दा होगी या नहीं पर दरवाजा खोलते ही वह फुर्र से उड़ गई और सामने  नीम के पेड़ पर बैठ गई | हमारे बाल मन को गहरा आघात पहुँचा | तब हम स्वतंत्रता का अर्थ नहीं जानते थे , हमारे हिसाब से उसे कृतज्ञता पूर्वक हमारे साथ रहना चाहिए था क्योंकि हमने उसकी जान बचाई थी अतः हमने उसकी एहसानफरामोशी पर उसे धिक्कारा और भारी मन से लौट आये | अपनी दुःख भरी गाथा माँ को सुनाई तब वो हँस पड़ीं और आज़ादी की कीमत क्या होती है बताया |

Thursday 21 April 2011

मासूम लड़कियों के भ्रूण एक झील में फेंक दिए गए थे जहाँ से बहते हुए गटर के गंदे पानी में तैर रहे  थे ,इसे  देखने के बाद मेरी आत्मा काँप उठी ,आजतक चैनल पर दिखाए गए इस दृश्य को मैं भुला नहीं पाती , जो माँ संतान की इज्ज़त करना नहीं जानती उसे माँ बनने का कोई हक़ नहीं ऐसा मैं मानती हूँ , प्रगतिशीलता का दावा करने वाला समाज खामोश क्यों है ? क्या हम अपाहिज हैं जो कुछ कर नहीं सकते ? इस तरह की वाहियात हरकतों का मैं पुरजोर विरोध करती हूँ ,और सबके सहयोग की कामना करती हूँ |




बेटियाँ
झील की सतह पर खिला
एक खूबसूरत फूल
कुचलकर , फेंक दिया गया
झील के पानी में
उस फूल से झाँक रहा था
मेरी बेटी का चेहरा
और शायद आपकी बेटी का भी
जो कह रहा था
माँ ! अपने ही रक्त माँस का टुकड़ा
कोई काटकर कैसे फेंक देता है ?
यह सवाल मुझे सोने नहीं देता
मेरी बेटी !
तुम्हारा प्रश्न ,मेरा भी है समाज से
कि आँखों खिला स्वप्निल गुलाब
कैसे फेंक दिया जाता है
किसी गटर या गन्दी नाली में
किसने हक़ दिया है हमें
कि छीन लें हम दूसरों से
उनके जीने का हक़ ?
यकीन मानो गुड़िया
यहाँ हर कोई जी रहा है
सिर्फ अपने लिए
तो तुम्हें भी आना होगा
झीलों , नालियों और गटरों से निकलकर
बंध्या करना होगा उन माँओं की कोख !
जिन्होंने तुम्हें मौत बाँटी है
बिटिया !
जिस समय तुम तोड़ रही होगी
भ्रूण हत्या करने वालों के हाथ
मेरा हाथ भी होगा तुम्हारे साथ |

Monday 18 April 2011

याद
जिस दिन
गाँव की डगर छूटी
पाँव बढ़े शहर की
लम्बी सड़क पर
बार - बार थरथराये
होंठ कुछ कहने को फड़के
ट्रकों के बड़े पहियों के बीच
कुचले जाने की सम्भावना ने
मन को बेचैन किया
कुछ सपने थे
जिन्होंने हाथ थामकर
अजनबी राहों पर चलना सिखाया
धुएँ के गुब्बार के बीच
आँखें धुंधलाई
पर बनी रही सपनों की
चमक -चाँदनी
इन्द्र धनुषों के रंग में
रंगीन बना जीवन
अपने को खोकर
बहुत कुछ पाया
पर आज भी पुरानी राहें
जब पुकारतीं हैं प्यार से
बड़े रास्ते पराये लगने लगते हैं
सपनों की चाँदनी , इन्द्र धनुषों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
भूलने लगते हैं किताबों के नाम
सिर्फ एक छोटी स्लेट
और कुछ दूधिया अक्षर
याद रह जाते हैं |