Friday 4 March 2011

मुखौटे वाले
कितना अजीब लगता है
मुखौटे वालों से मिलना
या उनसे बातें करना
जिनके पास
चेहरे वाले मुखौटे के साथ
भाषाई मुखौटा भी है
उनसे तो डर भी लगता है
कि न जाने कब
ये बदल लेंगे अपना रूप
और हम ठगे रह जायेंगे
हम ,जिसके पास असली चेहरा है
अजनबी बन जातें हैं इनके बीच
शब्दों की चाशनी में डुबाकर
ये नीम को तुलसी बना देते हैं
अपने रेगिस्तानी सीने से
सहानुभूति की गंगा बहा आते हैं
मारीच की तरह स्वर्णमृग बनकर
रच लेते हैं छलना का जाल
मुखौटेवाले
बड़े चालाक होते हैं
ये सूखे पेड़ों पर भी
उगा देते हैं नई छाल |

अचम्भे

कुछ अचम्भे
देखे थे कबीर ने
खड़ा सिंह चरा रहा था गाय
कम्बल बरस रहा था
भींग रहा था पानी
कुछ अचम्भे
देख रहे हैं हम भी
जवाहर का गुलाब
उखाड़ रहा है अपने आस -पास
उगे कांटो को
गाँधी की लाठी से गड़ेरिया
हाँक रहा है भेड़
लक्ष्मी बाई की तलवार
अंग्रेजों के म्यान में है
हिटलर लिख रहा है
जनतंत्र की परिभाषा
किसी गोरे का प्रशस्तिगान
राष्ट्रगीत बनकर गूँज रहा है
हर हिन्दुस्तानी के कंठ पर
बंकिम और इकबाल के गीत
राष्ट्रीय पर्वों पर
पढ़ी जाने वाली स्क्रिप्टें हैं
इटली के हांथों में है
भारत के पतंग की डोर
मर्यादापुरुषोत्तम को
कड़वे लगने लगे हैं
शबरी के बेर
ऐसे करोड़ों अचम्भे
देख रहे हैं हम और आप भी |

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