Friday 4 March 2011

ये कैसी लड़ाई है
खेतों में
बीज की जगह
बिखेरा जा रहा है बारूद
जंगल के मर्मर संगीत में
घुल रही हैं गोलियों की आवाजें
आदमी मार रहा है
बेगुनाह आदमी को
जिन्हें नाराजगी है
सत्ताखोरों से
सामंतवादी व्यवस्था से
वे उनसे न लड़कर
खड़े हो गए हैं
उसके खिलाफ
जो पहले से ही
दबाया कुचला हुआ है
ये कैसी लड़ाई है
कि अपने दुस्वप्न को
साकार करने के लिए
दूसरों की आँखों में पलते
मासूम सपनों को
रौंद रहे हैं वो
और हम
संवेदनशीलता का नाटक
करने वाले
भ्रष्ट प्रशासन के कन्धों पर
अपनी बंदूकें रखकर
सो रहे हैं चैन की नींद |

संस्कृति की कलमें
बड़े धूम -धाम से
गाजे -बाजे के साथ
लगाई जा रही हैं
हमारी संस्कृति की कलमें
विदेशों में
अपने भाषा ,साहित्य ,कला का
छीछालेदर करने वाले हम
ताल ठोंक रहे हैं
यहाँ न सही
विदेशों में धूम है
हमारी संस्कृति की
भारतीय महिलाएं
भूल गई हैं
सिन्दूर -बिंदी का महत्त्व
और हम यूरोपीय स्त्रियों को
बिंदी लगाकर
कर रहे हैं अपनी
परंपरा का प्रचार
पूरब के कपड़े उतरवाकर
पश्चिम पहन रहा है साड़ी
वैश्वीकरण का
झुनझुना बजाने वाले हम
अपने स्वाभिमान की रोटी छोड़कर
खा रहे हैं दूसरों की जूठन
हिन्दुस्तान में
हिंदी का दाह-संस्कार करके
आयोजित कर रहे हैं
विदेशों में
विश्व -हिंदी सम्मेलन
मांगकर खाने की आदत
गयी नहीं अभी तक इसलिए
इंडिया को सभ्य बनाने का ठेका

हमने दे दिया है फिर से एक बार
ईस्ट -इंडिया कम्पनी को |



खरीददार कौन नहीं है ?
हमारे देश के बाजार में
बिक रहा है सब कुछ
जो चाहो खरीद लो
पैसे पास हों तो
लाल किला भी
हो सकता है तुम्हारा
दलित का दर्जा पालो
तो पांचो अंगुलियाँ घी में
साथ ही सरकारी दामाद
होने का रुतबा भी
और संसद की आरक्षित
सीट पर बैठने का गौरव भी
नोट और वोट का व्यापार
यहाँ जोर शोर से
फल फूल रहा है
बेचीं जा रही हैं
आत्माएं भी
हिन्दुस्तान बन गया है
एक ऐसा शापिंग माल
जहाँ ब्रांडेड चीजों के साथ
बिक रहे हैं हम भी
माताएं बेच रही हैं कोख
बेटियां अस्मत
भाई लगा रहे हैं बहनों की बोली
दलालों ने बना दिया है
देश को कोठा
खरीददार कौन नहीं है ?

गुरु घंटाल
गला फाड़ कर चिल्लाने वाले
देश के नुमाइंदे नहीं
पेशेवर दलाल हैं
इनकी बड़ी मोटी खाल है
काले इतने
कि कालिख पोतने पर भी
एक जैसे लगते हैं
ये ठग देश के
नाम पर ठगते हैं
दिन में सोते हैं
रात को जगते हैं
इनका सम्बन्ध
उन अंधेरों से है
जहाँ मृतात्माओं का साम्राज्य है
जहाँ जाने पर आदमी
रास्ता भूल जाता है
इनकी ज़िन्दगी
सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
एक लाश है
जहाँ दुर्गन्ध है ,कुलबुलाते कीड़े हैं
ढेर साड़ी भिनभिनाती मक्खियाँ हैं
इनके साए में
आतंकवाद पलता है
देश की सीमायें
पड़ जाती हैं खतरे में
ये गुरु घंटाल
घोटाला करने में माहिर हैं

रिश्वत को उपहार कहकर
कानून को ठेंगा दिखाते हैं
कुर्सी की खातिर
देश को बेच खाते हैं |

याद

जिस दिन
गाँव की छोटी डगर छूटी
पाँव बढ़े शहर की
लम्बी सड़क पर
बार -बार थरथराये
होंठ कुछ कहने को फड़के
ट्रकों के भारी पहियों के बीच
कुचले जाने की संभावना ने
मन को बेचैन किया
कुछ सपने थे
जिन्होंने हाथ थामकर
अजनबी राहों पर चलना सिखाया
धुएँ के गुब्बार के बीच
आँखें धुंधलाई
पर बनी रही सपनों की चमक -चांदनी
इन्द्रधनुषों के रंग में
रंगीन बना जीवन
अपने को खोकर
बहुत कुछ पाया
पर आज भी पुरानी राहें
जब पुकारती हैं प्यार से
बड़े रास्ते पराये लगने लगते हैं
सपनों की चांदनी ,इन्द्रधनुषों के रंग
फीके पड़ जाते हैं
भूलने लगते हैं किताबों के नाम
सिर्फ एक छोटी स्लेट
और कुछ दूधिया अक्षर
याद रह जाते हैं |

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