Wednesday 6 July 2011

उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन

सावन आता है ,
बरसती हैं आँखें हर बरस
तुम्हारी आखिरी राखी
जब बाँधती हूँ भाइयों की कलाई पर
स्मृतियाँ  चीर देती हैं सीना
एक दूसरे से नज़रें  चुराते
छुपाते अपने आँखों की नमीं
हम मर - मर कर जीते हैं
माँ की ममता तकिये में मुँह छुपाये
रात भर रोती है ,
बाबूजी का कंधा असमय झुक जाता है 
आँगन की तुलसी सिसकती है 
तीज त्योहारों पर परस देती हैं माँ 
आज भी चार थालियाँ 
त्रिशंकु की तरह हम तीन 
झूलते हैं यातना के आकाश में |
ये कैसी क्रूरता हुई हमारे साथ 
कि दूध  पिलाया जिन हाथों से
उसी से पिलाया तुलसी और गंगा जल !
तुम्हारे जाने के बाद
पूनम की रातें अमावस बन गईं
ओ मेरी चंदा !
जिस दिन तुम्हें खोया
उस दिन से अंजोरिया नहीं उतरी मेरे आँगन |

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