Sunday 20 February 2011

दर्द हमें भी होता है
दरख्तों के साये में
हमें भी धूप लगती है
उम्र भर के लिए
कहीं और चले  जाने का
मन भी करता है ये जुबाँ हमसे भी
सी नहीं जाती
दुष्यंत की तरह
एक पत्थर उछालकर
आकाश में सूराख बनाने को
जी मचलता है
पाश की तरह सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक लगता है
हर हत्याकांड के बाद
वीरान आंगनों में चमकता चाँद
हमारी आँखों में गड़ता है
नहीं सो पाते हम भी रात भर 
लगामवाले घोड़ो के साथ 
हमने भी चखा है लोहे का स्वाद 
धूमिल की तरह 
रोटी से खेलनेवालों  से
किया है सवाल
अपना घर जलाकर
भरे बाजार में खड़े कबीर ने
जो लुकाठी हमें दी थी
उसे जलाये रखा है हमने
अपने तमाम साथियों के साथ
जिन्होंने कुम्भनदास की तरह
फतेहपुरसीकरी के 
आमंत्रण को ठुकराया है 
रुई के पुतले 
आने वाली आंधी की थिरकन को 
अनुभव कर सकें 
यह हम भी चाहते हैं 
क्योंकि हमारी रगों में भी 
दुष्यंत ,पाश ,धूमिल 
और कबीर का खून है 
आत्मा के मरने का दर्द 
हमें भी होता है 
उन्हीं की तरह हमारी भी कलम 
लड़ेगी अपने देश के लिए 
जिसके मानचित्र की रेखाएं 
बिगड़ी हुई हैं | 

1 comment:

  1. नीलम जी, आपके संकलन प्रकाशन से पूर्व ही यहां प्रकाशित रचनाओं जैसा ही आनंद प्राप्त हुआ । उम्मीद है जल्दी ही और कविताएं भी पोस्ट करेंगी । जैसी कि हमारी बात हुई है, आप jagranjunction.com को भी ज्वाइन कर अपनी कविताओं के प्रकाशन जैसी ही अनुभूति प्राप्त कर सकती हैं । धन्यवाद, शाही ।

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