Sunday 20 February 2011

भूख   
हम आदमखोर आदमी
खा सकते हैं कुछ भी
हमारी भूख है
सबसे बड़ी भूख
पेट खाली हो तो
हम चबा जाते हैं
अपना ही समूचा जिस्म
जनतंत्र के तंदूर में
दिन रात पकाते  हैं रोटियां
जिसे संविधान के सालन के साथ
खाते हैं चटखारे लेकर
कानून का काला नमक छिड़ककर
बना लेते हैं हर चीज को
थोड़ा और स्वादिष्ट
चौरासी लाख योनियों में
सर्वश्रेस्ठ प्राणी हम 
खा सकते हैं किसी को भी 
खून का नमकीन स्वाद 
बढ़ा   देता है हमारा जायका
हम खा सकते हैं
किसी का समूचा सपना
किसी की नींद
किसी की हंसी
भूख चाहे कैसी भी हो
जब जागती है
तो हमारा रूप
हो जाता है कुछ इस तरह  
कि हम आदमी तो दूर
जानवर कहलाने के
लायक भी नहीं रहते |

2 comments:

  1. bahut achchhi kavita hai.
    -ritwiz

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  2. आपकी रचनाओं ने पूर्व की भांति ही प्रभावित किया । मैंने पहले भी कमेंट दिया था, पता नहीं क्यों पोस्ट नहीं हो पाया । धन्यवाद ।

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