उस शाम दशाश्वमेध घाट पर
गंगा की लहरों को कुछ दिए समर्पित कर
एक संधि पत्र लिखा गया था ।
साक्षी थे तुम भी उस अनुबंध के
बता मेरे बनारस उस रात अपने चरखे पर
सपनों के कितने सूत काते थे तुमने
और ताने भरनी पर कितनी चादरें बुनीं थीं ?
अध्यात्म के पाखण्ड पर
क्या सिसकते घाटों की व्यथा सुनी थी तुमने ?
जब कबीर चौरा डूब रहा था कबीर के आँसुओं में
क्या तुम्हारी पलकें नम हुई थीं ?
गंगा का मैला आँचल देख
कितनी बार उठी है तुम्हारे सीने में हूक ?
न जाने कितने मसीहाओं ने
तुमको रास्ता बनाकर राजधानी तक की यात्रा की
और तुम अस्सी के घाट पर बैठकर
चरस और गाँजे का आनंद लेते रहे ।
तुम्हारी संस्कृति के नूपुर के घुँघरू
टूटकर बिखर गए गलियों में
तुम महज़ एक ख्वाब बनकर रह गए ।
सारनाथ के तिलिस्मी दरवाजे की चाबी
पहुँच गई श्रीलंका और जापान के हाथों
ओ भारत की सांस्कृतिक राजधानी !
तुम्हारे ध्वस्त गलियारों में
जब भी गूँजती है सपनों के सौदागरों की पदचाप
और छली जाती हो तुम तो कसकता है कलेजा
ओ मेरे बनारस !
तुम्हारा आहत अभिमान क्यों नहीं पूछता
कि प्रसाद , बिरजू और अमीरुद्दीन के बाद
काशी की किताब के पन्ने कोरे क्यों हैं ?
ओ मेरे अभिमान !
तू सपनों के बाज़ार से लौट आ
मिट्टी पर रह , बात कर मिट्टी वालों से
देवताओं को फुर्सत नहीं स्वर्ग से
उनके पास तो मिट्टी वालों के लिए
सिर्फ सपनों के गुब्बारे हैं ।
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