Tuesday 19 August 2014

एक चिट्ठी बनारस के नाम ....




उस शाम दशाश्वमेध घाट पर 
गंगा की लहरों को कुछ दिए समर्पित कर 
एक संधि पत्र लिखा गया था । 
साक्षी थे तुम भी उस अनुबंध के 
बता मेरे बनारस उस रात अपने चरखे पर 
सपनों के कितने सूत काते थे तुमने 
और ताने भरनी पर कितनी चादरें बुनीं थीं ?
अध्यात्म के पाखण्ड पर 
क्या सिसकते घाटों की व्यथा सुनी थी तुमने ? 
जब कबीर चौरा डूब रहा था कबीर के आँसुओं में 
क्या तुम्हारी पलकें नम हुई थीं ? 
गंगा का मैला आँचल देख 
कितनी बार उठी है तुम्हारे सीने में हूक ?
न जाने कितने मसीहाओं ने 
तुमको रास्ता बनाकर राजधानी तक की यात्रा की 
और तुम अस्सी के घाट पर बैठकर
चरस और गाँजे का आनंद लेते रहे । 
तुम्हारी संस्कृति के नूपुर के घुँघरू 
टूटकर बिखर गए गलियों में 
तुम महज़ एक ख्वाब बनकर रह गए ।
सारनाथ के तिलिस्मी दरवाजे की चाबी 
पहुँच गई श्रीलंका और जापान के हाथों 
ओ भारत की सांस्कृतिक राजधानी ! 
तुम्हारे ध्वस्त गलियारों में 
जब भी गूँजती है सपनों के सौदागरों की पदचाप 
और छली जाती हो तुम तो कसकता है कलेजा 
ओ मेरे बनारस ! 
तुम्हारा आहत अभिमान क्यों नहीं पूछता 
कि प्रसाद , बिरजू और अमीरुद्दीन के बाद 
काशी की किताब के पन्ने कोरे क्यों हैं ? 
ओ मेरे अभिमान ! 
तू सपनों के बाज़ार से लौट आ 
मिट्टी पर रह , बात कर मिट्टी वालों से 
देवताओं को फुर्सत नहीं स्वर्ग से
उनके पास तो मिट्टी वालों के लिए
सिर्फ सपनों के गुब्बारे हैं ।

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