Saturday 4 February 2012

आँखें आज भी जिसे ढूँढती हैं

उसके रिक्शे की घंटियों  में
सुनाई देते थे संगीत के सातों स्वर
मिश्री घुली आवाज़ में प्यार से
चरित्तर का  'नीलम परी  ' पुकारना
आज भी याद आता है ,
वात्सल्य के वैभव से विभूषित
उस सम्राट की परिकल्पना में
कैसा परीलोक था मैं नहीं जानती
जिसका सम्बन्ध उसने मुझसे जोड़ रखा था ।
माँ की वर्जनाओं के बावजूद
अपनी धोती की गाँठ में संचित
अपनी  पूँजी का  एक अंश
वह हर दिन लुटाता था मुझपर
मेरे अस्वस्थ होने पर
बताता था माँ को इलाज के हर नुस्खे
चरित्तर के पास
 हर समस्या का समाधान था
उसकी हठधर्मिता के समक्ष
नहीं चलती थी किसी की भी
कभी - कभी सामने बिठाकर
करता था झाड़ - फूँक
कि कड़ी नज़र लगी है बिटिया को
न जाने कैसी चिट्ठी , कैसा संदेसा
आया गाँव से उसके ,
अपनी डबडबाई आँखों से मुझे देखता ,
आशीष देता वह दृष्टि से ओझल हो गया
नहीं आया लौटकर फिर कभी
छूट गया वह रिक्शे का उड़न खटोला
परीलोक का अभिशप्त चरित्र
बन गया ' चरित्तर '
महानगर की भीड़ में
असंख्य रिक्शों के बीच
आँखें आज भी ढूँढती हैं उसे
लगता है मेरे आस - पास झंकृत होगी
कभी न कभी उसके स्वरों की वीणा
पुकार कर कहेगी -
" नीलम परी  लो मैं आ गया ! "

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